Wednesday, November 25, 2009

इतना भी आसान नहीं

व्यस्तता के दौर से निकली सरल और सहज शब्दों में साकार, ग़ज़ल की कुछ लाइनें आप सब के नज़र करता हूँ..आशीर्वाद दीजिएगा.


सोच रहा था तुमसे मिलता,पर आना आसान नहीं,

फुरसत के कितने पल है,यह समझाना आसान नहीं,


हैरत में हूँ,मैं यह सुनकर,की मैं बदल गया हूँ अब,

मजबूरी में कदम बँधे है, कह पाना आसान नहीं,


बातें और बहाने ये सब औरों की आदत होगी,

सच्चाई से शब्द गुथे है, बतलाना आसान नहीं,


कितना भी समझा दूँ लेकिन झूठ तुम्हे सब लगता हैं,

सच की गाथा गाते हो, सच अपनाना आसान नहीं,


वैसे तो यह मन कहता है,दूरी बस एहसास है एक,

मगर ख्यालों की दुनिया में रह पाना आसान नहीं,


फिर भी नहीं समझना की मैं,भूल गया वो बीते पल,

यादों की उन महलों का भी, ढह जाना आसान नहीं,


ढूढ़ रहा हूँ कि कुछ टुकड़ा, वक्त कहीं से मिल जाए,

बँधन ही यह कुछ ऐसा है, बच पाना आसान नहीं,


चार पंक्ति का माफीनामा, ग़ज़ल बन गई है देखो,

तुम से इतनी दूरी भी तो सह पाना आसान नहीं.


Sunday, November 15, 2009

पप्पू जी का एक सवाल और पापा जी भी हैरान हो गये

कुछ दिनों की व्यस्तता के बाद आज थोड़े फुरसत के पल मिलें और बस फिर एक और कविता. आज एक नटखट बच्चे के शरारत भरे प्रसंग को हास्य कविता बना कर प्रस्तुत कर रहा हूँ...आशीर्वाद दीजिएगा!!!

पप्पू,पापा जी से बोला,
पापा एक सवाल बताओ,
इतना उपर उड़ जाता है,
कैसे गुब्बारा समझाओ.

पापा बोले ,बेटा पप्पू,
सही सवाल ढूढ़ कर लाओ,
ऐसे उल्टे प्रश्नों में तुम,
अपने को मत यूँ उलझाओ.

गुब्बारे में गैस भरी.है.,
सो वो उड़ता है,जाता ,
इतनी अकल नही है बुद्धू,
थोड़ा सा तो अकल लगाता.

एक मिनट फिर सोचा पप्पू,
फिर से अपना अकल लगाया,
पापा जी के पास में जाकर,
वहीं प्रश्न फिर से उलझाया.

बोला गैस में इतना दम है,
ऐसे गुब्बारे लहराते?,
वहीं गैस गर हम भी, पी लें,
तो क्या हम भी यूँ, उड़ जाते.

अगर असर सचमुच में है तो,
क्यों तुम ऐसे चिल्लाते हो,
गैस पेट में जब बनती है,
बोलो क्यों? ना उड़ जाते हो.

पापा बोले, ये पप्पू जी,
तुम हो हमसे बड़े महान,
जाओ जाकर सो जाओ अब,
कभी नही मैं दूँगा ज्ञान.


Thursday, November 5, 2009

क्यों, होता है ये सब

आप लोगो के प्यार और आशीर्वाद के वजह मैं खुद को रोक नही पाता बहुत व्यस्तता से घिरे होने के बावजूद भी आज यह मन नही माना और और बस कुछ लाइनें लेकर फिर से आ गया. परंतु अब शायद कुछ दिन बाद ही यहाँ आना संभव हो तो बस आप सभी से आग्रह है की ऐसे स्नेह बनाएँ रखे ...


इंसानों को इंसानों से इतनी भी मायूसी क्यों?

प्रेम मुफ़्त है इस दुनिया में,फिर भी ये कंजूसी क्यों?


क्यों बारिश की बूँद नदारद,

क्यों सूरज है आग भरा,

क्यों सावन है उलझा उलझा,

क्यों बसंत है डरा डरा,

क्यों खुश्बू की हवा से यारी,

धीमी पड़ती जाती है,

इंसानों की करतूतों से,

क्यों धरती शरमाती है,


शोर शराबा एक तरफ है, एक तरफ खामोशी क्यों?

प्रेम मुफ़्त है इस दुनिया में, फिर भी ये कंजूसी क्यों??


क्यों मंदिर मस्जिद होते हैं,

जाति-धर्म के झगड़े क्यों,

क्यों ज़मीन के लिए लड़ाई,

क्यों पिछड़े व अगड़े क्यों,

अपने दुख पर दुख होता है,

गैरों पर खुशहाली क्यों,

भौतिकता की बलि चढ़ गयी,

वृक्षों की हरियाली क्यों,


कब तक जागेंगे जग वाले, यारो ये बेहोशी क्यों??

प्रेम मुफ़्त है इस दुनिया में, फिर भी ये कंजूसी क्यों??


क्यों ईमान धरम है गायब,

बेईमानों के नाम हुए,

देखो पैसों की लालच में,

क्यों नेता बदनाम हुए,

रात भी सहमा सहमा रहता,

हर दिन होती एक सनसनी,

क्यों दहेज की माँग बढ़ी,

क्यों है बेटी बोझ बनी,


निर्धनता अभिशाप बन गयी, इसमें बेटी दोषी क्यों??

प्रेम मुफ़्त है इस दुनिया में, फिर भी ये कंजूसी क्यों??