Monday, December 27, 2010

नए वर्ष की हार्दिक शुभकामना----(विनोद कुमार पांडेय)

आप सभी लोगों से मिलें प्यार और आशीर्वाद का आभारी हूँ| इस वर्ष काफ़ी कुछ नया भी सीखने को मिला |आप सब लोगों का धन्यवाद व्यक्त करते हुए ईश्वर से यहीं प्रार्थना करता हूँ की आने वाला वर्ष आप सब लोगों के लिए सुखमय हो|नए वर्ष की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ एक गीत प्रस्तुत कर रहा हूँ|

नया साल है आने वाला, आओ मिलकर खुशी मनाएँ|
गीत प्रीत के तुम भी गाओ,गीत प्रीत के हम भी गाएँ||


चेहरे पर उत्साह नया हो, नये रंग में तुम इतराओ,
नई सुबह हो,नयी शाम हो,नये स्वप्न से नैन सजाओ,
नई उमंगे,नया हर्ष हो,जोश नया हो तन-मन में,
नये भाव का सृजन करो तुम,हृदय सरीखे उपवन में,

प्रेम के दीए जलाएँ दिल में,नफ़रत दिल से दूर हटाएँ|
गीत प्रीत के तुम भी गाओ,गीत प्रीत के हम भी गाएँ||

दिन आता है,दिन जाता है,जग की रीत पुरानी है,
रह जाती है बस यादें बाकी सब आनी जानी है,
दिवस,महीना,साल बीतता,नया वर्ष फिर आता है,
दिन का एक एक अनुभव हर बार हमें समझाता है,

धीरज रख कर अंतर्मन में,मेहनत करें,सफलता पाएँ|
गीत प्रीत के तुम भी गाओ,गीत प्रीत के हम भी गाएँ||

जीवन एक एक पल से बनता,हर पल में जीना सीखो,
अमृत,विष सब कुछ मिलते है,हँस कर के पीना सीखो
कोई सुखी है,कोई दुखी है,जीवन का अभिसार यहीं,
सब ईश्वर की मर्ज़ी इस पर,अपना कुछ अधिकार नहीं,

जिन्हे रुलाया है जीवन नें,चलो उन्हे हँसना सिखलाएँ|
गीत प्रीत के तुम भी गाओ,गीत प्रीत के हम भी गाएँ||

Thursday, December 23, 2010

आम पब्लिक और प्याज---(विनोद कुमार पांडेय)

आज की मौजूदा हालात में मँहगाई ने आम आदमी के नाक में दम कर के रख दिया है|इसी मँहगाई का एक और रूप आज कल दिखने को मिल रहा है| उसी सन्दर्भ में प्रस्तुत है एक व्यंग्य जो आज के हरिभूमि समाचार पत्र के दिल्ली संस्करण में भी प्रकाशित हुआ है धन्यवाद!


कांग्रेस की सरकार में आम आदमी की कीमत भले ही दो कौड़ी की हो गई हो पर बाकी सभी वस्तुओं की कीमत आसमान छूती नज़र आ रही है|बात मुद्दे की तब हो गई जब खाने पीने का सामान भी सोने-चाँदी के भाव बिकने लगा अब प्याज को ही लीजिए,आज-कल प्याज के बढ़ते भाव ने अच्छे-अच्छों को रुला कर रख दिया है|वैसे तो प्रायः प्याज छिलते समय आदमी के आँखो से आँसू आते है पर अब तो देख कर ही आँसू आ जाते है|


पिछले कई दिनों से सब्जियों के दाम वन-डे क्रिकेट में भारत की रेटिंग की तरह घट-बढ़ रहे है| पर प्याज के दाम तो अचानक से ही धोनी के अनुबन्ध के रेट की तरह दुगुने हो गये भारत सरकार चुपचाप बी. सी. सी. आई. की तरह हाथ पर हाथ धरे बैठी है और देश के ठेकेदार ललित मोदी की तरह सब्जियों के बढ़ते दामों का फ़ायदा उठाकर जनता को लूट रहे है|अगर कुछ और चीज़ होती तो चलो ठीक था यह तो सीधे-सीधे पेट पर लात मारने वाली बात हुई |

लगभग हर सब्जियों में फिट हो जाने वाला प्याज आज तन कर बैठा है और बाकी सभी सब्जियों को मुँह चिढ़ा रहा है यह सिर्फ़ सरकार की मेहरबानी का नतीजा है|सरकार इस मामले में पहले ही साफ कह दी कि दाम तो अभी १ महीने तक ऐसे ही बढ़ेगा तो जब उनके तरफ से भविष्यवाणी पहले ही हो गई फिर उनसे कुछ उम्मीद रखना बेकार है वैसे भी पब्लिक में ऐसे लोगों की संख्या बहुत कम है जो सरकार से किसी प्रकार की उम्मीद रखते है|ऐसी स्थिति में भारत की जनता से एक ही अनुरोध है कि कृपया धैर्य बनाए रखें जब तक हालात काबू में नही आ जाते और प्याज की दाम में गिरावट नही आ जाती विशेष रूप से वो सज्जनगण जिन्हें प्याज से प्रेम है अर्थात प्याज खाने के कुछ ज़्यादा ही शौकीन है|इसके दो फ़ायदे है एक तो मँहगाई की मार से बच जाएँगे दूसरे अगर चाहे तो घर में रखे प्याज को बाजार में निकाल कर दो-चार सौ रुपये की कमाई कर सकते है |बस थोड़े दिन मन को मनाना होगा वैसे भी बिजनेस करके पैसा कमाना कोई आसान काम नही है और वो भी ऐसी विषम परिस्थितियों में|


प्याज की बढ़ती हुई दाम पर जनता की प्रतिक्रिया भी कुछ अलग ही तरीके से होनी चाहिए हर बार मँहगाई के नाम पर रोने-चिल्लाने से अभी तक क्या मिल गया सरकार को तो सुनाई देता नही फिर भैस के आगे मुरली बजाना कोई फ़ायदे की बात नही लगती|सरकार की कृपा से प्याज भी आज-कल अपने जीवन के सर्वोत्तम दौर से गुजर रहा है अगर सब्जियों पर ऐसी ही कृपा दृष्टि बनी रही तो निश्चित रूप से सब्जियाँ फलों से कई गुना आगे निकल जाएगी|इस बात का एहसास फलों को भी है और अगर ऐसा हुआ तो फलों के ऐसे श्राप लगेंगे कि अगले चुनाव के फल भी मंत्री जी की टोकरी से बाहर ही होंगे|

Monday, December 20, 2010

क्या तेरा क्या मेरा साथी----(विनोद कुमार पांडेय)

एक छोटे से अंतराल के बाद आज फिर एक छोटी बहर की छोटी ग़ज़ल पेश करता हूँ....उम्मीद करता हूँ आप सब को पसंद आएगी..धन्यवाद


जग सुख-दुख का डेरा साथी
सब मायावी घेरा साथी

रैन,सपन दो पल की खुशियाँ
आँख खुली अंधेरा साथी

रात घनी जितनी भी हो पर
उसके बाद सवेरा साथी

मिट जाना है एक दिन सब कुछ
किसका कहाँ बसेरा साथी

आस तभी तक जब तक साँसे
क्या तेरा क्या मेरा साथी

Sunday, December 5, 2010

महानगर की चकाचौंध---(विनोद कुमार पांडेय)

पिछले कुछ दिनों से लगातार ग़ज़लों की प्रस्तुति के बाद आज एक गीत प्रस्तुत कर रहा हूँ..रचना की पृष्ठभूमि मेरी पसंदीदा हास्य-व्यंग्य ही है..उम्मीद करता हूँ. एक लंबे अंतराल के बाद मेरा यह प्रयोग आप सब का मनोरंजन करने में सफल रहेगा..धन्यवाद!

धक्का-मुक्की,हल्ला-गुल्ला,लोग-लोग पर टूटे हैं||
महानगर की चकाचौंध को,देख पसीने छूटे हैं||

आसमान की नाक पकड़ती मंज़िल बड़ी-बड़ी देखी,
गीत सुनाती लिफ्ट भी देखी,सीढ़ी खड़ी-खड़ी देखी,
सिगरेटों के धुएँ उड़ाते पुरुषों की भी लड़ी देखी,
बीयर-बार में बालाओं को टल्ली हुई पड़ी देखी,

उनके माँ-बाबूजी से तो भाग्य-विधाता रूठे हैं||महा.

मस्त चमाचम सड़कें चमकें तनिक नही भी धूल दिखे,
पंचसितारा होटल जैसे बच्चों के स्कूल दिखे,
गंदे नाले ऐसे दिखते जैसे स्वीमिंग पूल दिखे,
लंबी-चौड़ी जाम दिखे पर बढ़िया ट्रैफिक रूल दिखे,

चौराहे पर हवलदार भी बढ़िया रुपया लूटे हैं||महा.

शॉपिंग-मॉल के अंदर झाँके देख नज़ारा खीस लगे,
४४ के हुए चचा पर देखो तो २४ लगे,
हरियाली की दशा देख कर मन में थोड़ा टीस लगे,
ग़लती से भी थूक दिए तो उसके भी कुछ फीस लगे

समतल राहों में भी देखा जगह-जगह पर खूटे हैं||महा.

कपड़े,खाने और खिलौनों से दुकान सब भरे मिले,
लड़के और लड़कियाँ दोनों वस्त्र मोह से परे मिले,
भूखे और ग़रीब शहर में सहमें एवं डरे मिले,
लोग सजे-सँवरे दिखते हैं बूढ़े भी छरहरे मिले,

चमकीलें कुर्तों के उपर रंग-बिरंगे बूटे हैं||महा.

दिन को साथ लपेटे घूमें ऐसी काली रात दिखी,
चालीस साल का दूल्हा लेकर स्पेशल बारात दिखी,
स्पेशल बाइक-कारें और स्पेशल औकात दिखी,
छोटी-छोटी बातों पर भी भारी जूता-लात दिखी,

नया दौर का नाटक देखा सोचा लगा अनूठे हैं||

महानगर की चकाचौंध को,देख पसीने छूटे हैं||

Tuesday, November 30, 2010

दिल में राम बसा कर देखो--(विनोद कुमार पांडेय)

नवंबर का पूरा महीना ग़ज़लों को समर्पित करते हुए आज आप सभी का स्नेह और आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए एक और ग़ज़ल प्रस्तुत कर रहा हूँ॥

घृणा-बैर मिटा कर देखो
नेह के बीज उगा कर देखो

मन-मंदिर सब एक बराबर
दिल में राम बसा कर देखो

अपनों की रुसवाई देखी
गैरो को अपना कर देखो

सुख-दुख जीवन के दो पहलूँ
ऐसा ध्येय बना कर देखो

स्वर्ग-नर्क सब धरती पर है,
घर से बाहर आ कर देखो

बहरी है सरकार हमारी,
चाहो तो चिल्ला कर देखो

होती है क्या ज़िम्मेदारी
घर का बोझ उठा कर देखो


कितनी कीमत है रोटी की
निर्धन के घर जाकर देखो

Thursday, November 25, 2010

एक और व्यंग्य ग़ज़ल----(विनोद कुमार पांडेय)

व्यंग्य ग़ज़लों का सिलसिला जारी रखते हुए अपने सीधे-सादे लहजे में प्रस्तुत करता हूँ एक और ग़ज़ल|आप सब के आशीर्वाद का आपेक्षी हूँ.


चारो ओर मचा है शोर
सब अपनें-अपनों में भोर

बच कर के रहना रे भाई
बना आदमी आदमख़ोर

इंसानों ने सिद्ध कर दिए
रिश्तों की नाज़ुक है डोर

नज़र उठा कर देखो तो
है ग़रीब,सबसे कमजोर

अजब-गजब के लोग यहाँ
बाप सिपाही,बेटा चोर

जिसको कोई कमी नही हैं
उसका भी दिल माँगे मोर

Friday, November 19, 2010

चमचों का जलवा---(विनोद कुमार पांडेय)

सरकारी ऑफीस से लेकर प्राइवेट स्कूल तक सब जगह चमचे भरे पड़े है.जो पब्लिक और ऑफीसर के बीच रह कर काम करते अधिकारी वर्ग उनकी ही बात सुनते है और आम जनता चमचों की मध्यस्थता से परेशान हो जाती है..उसी सन्दर्भ में एक व्यंग ग़ज़ल प्रस्तुत कर रहा हूँ....आशीर्वाद दीजिएगा.


जगह-जगह सरकारी चमचे
पब्लिक की लाचारी चमचे

मंत्री जी को भी पसंद है
पढ़े-लिखे अधिकारी चमचे

शहद घुली सी मीठी बोली
लगते हैं मनुहारी चमचे

सब होगा बस रुपया दो
इतने तो हितकारी चमचे

थाना हो या कोर्ट-कचहरी
अफ़सर पर भी भारी चमचे

जनता को ठगने की डेली
करते हैं तैयारी चमचे

आम आदमी बंदर जैसा
डमरू लिए मदारी चमचे

दुनिया चमचों का मेला है
मिलते बारी बारी चमचे

Saturday, November 6, 2010

जो अंधों में काने निकले,वो ही राह दिखाने निकले---(विनोद कुमार पांडेय)

जो अंधों में काने निकले
वो ही राह दिखाने निकले

उजली टोपी सर पर रख के,
सच का गला दबाने निकले

चेहरे रोज बदलने वाले
दर्पण को झुठलाने निकले

बातें,सत्य अहिंसा की है,
पर,चाकू सिरहाने निकले

जिन्हे भरा हम समझ रहे थे
वो खाली पैमाने निकले

मुश्किल में जो उन्हें पुकारा
उनके बीस बहाने निकले

कल्चर को सुलझाने वाले
रिश्तों को उलझाने निकले,

नाले-पतनाले बारिश में,
दरिया को धमकाने निकले,

माँ की बूढ़ी आँखे बोली,
आंसू भी बेगाने निकले

पी. एच. डी. कर के भी देखो
बच्चे गधे उड़ाने निकले

Sunday, October 31, 2010

भगवान भी हैरान है,क्या चीज़ है यह आदमी---(विनोद कुमार पांडेय)

पंकज सुबीर जी द्वारा आयोजित तरही मुशायरे में सम्मिलित की गई मेरी एक ग़ज़ल..आज आप सब के आशीर्वाद के लिए प्रस्तुत है..

मत पूछ मेरे हाल को बेहाल सी है जिंदगी
मैं बन गया हूँ,आजकल अपने शहर में अजनबी

जो वाहवाही कर रहे थे, आज हमसे हैं खफा
एक बार सच क्या कह दिया, ऐसी मची है,खलबली

वो दौर था,जब दोस्ती में जान भी कुर्बान थी
अब जान लेने की नई तरकीब भी है दोस्ती

हम तो वफ़ा करते रहे, सब भूल कर उसके करम
था क्या पता हमको कभी भारी पड़ेगी दिल्लगी

चट्टान को भी चीर कर जिसने बनाया रास्ता
क्या हो गया है आज क्यों, सूखी पड़ी है वो नदी

ठगने लगे हैं लोग अब इंसानियत के नाम पर
भगवान भी हैरान है,क्या चीज़ है यह आदमी

कल रात ही एक और ने भी हार मानी भूख से
पाए गये आँसू ज़मीं पे रो पड़ा था चाँद भी

Thursday, October 28, 2010

आज हरिभूमि में प्रकाशित मेरी एक व्यंग(लो फिर उछला जूता)-----विनोद कुमार पांडेय

आस्ट्रेलिया के पूर्व प्रधानमंत्री जॉन हॉवर्ड के उपर जूते का उछाला जाना जूते उछाले जाने की परंपरा का एक बेजोड़ नमूना हैकुछ साल पहले एक इराक़ी पत्रकार नें अमेरिकी राष्ट्रपति के उपर जूता फेंककर इस रिवाज की सार्वजनिक शुरुआत की और आज यह इतना लोकप्रिय हो गया है कि अब तक ३-४ घटनाएँ सुर्ख़ियों में हैं यहाँ तक कि भारत में भी इस प्रणाली की जोरदार उद्‍घाटन हो चुकी है


अब अगर इस व्यवस्था की समीक्षा करें तो हम पाएँगे की जूते उछालने की प्रक्रिया एक प्रकार की नाराज़गी व्यक्त का तरीका है जिसमें फेकनें वाला और जिसके उपर फेंका जाता है दोनों लगभग-लगभग सुरक्षित रहते है फ़ायदे की बात यह है कि जूता फेंकने वाला व्यक्ति झटपट चर्चा में आ जाता है और वैसे भी सुर्ख़ियों में आना भला कौन नही चाहता अब वो स्थिति तो रही नही कि नेक काम से आदमी को जाना जाय तो आदमी ने कुछ दूसरा रास्ता ढूढ़ना शुरू कर दिया बस इसी जद्दोजहद में जूता फेंको खेल की शुरुआत हुई जो दिन पर दिन अपने लोकप्रियता की शिखर की ओर बढ़ती जा रही है


इस जूता फेंको खेल की सबसे बड़ी खास बात यह है कि जूता फेंकने वाला व्यक्ति तो बेइज़्ज़ती करने के उद्देश्य से फेंकता है परंतु सामने वाला व्यक्ति तनिक भी बेइज़्ज़ती महसूस नही करता बल्कि उस व्यक्ति को माफ़ कर देता हैवैसे ये सारी बातें ऊपर की खबर है अगर मीडिया से छिपकर उस जूता फेंकने वाले व्यक्ति के साथ कोई कार्यवाही की जाती हो उसके के बारे में हम कुछ नही कह सकते


चाहे कुछ भी हो एक बात साफ है दिन पर दिन राजनेताओं पर जूता फेंकने की घटना बढ़ती जा रही है जिससे राजनेताओं को जूते का ख़तरा बढ़ गया है अगर इसी तरह सब कुछ चलता रहा तो एक दिन ऐसा भी हो सकता है कि सभागार और असेंबली में लोगों को जूते पहन कर जाने की अनुमति ही ना दी जाएँ और गेट के बाहर दो-चार बॉडीगॉड पब्लिक के जूतों की निगरानी में ही लगे रहें


अगर इस प्रकार हो गया तो प्रशासन की एक बड़ी संख्या इस कार्य के लिए भी नियुक्त कर दी जाएगी की जहाँ कही नेता जी भाषण देने जाए वहाँ कोई भी जूता- चप्पल वाला आदमी दिखाई ना देक्योंकि जूता फेंकने से भले ही किसी प्रकार की जान-माल की नुकसान ना हो पर अपने राजनयिक की बेइज़्ज़ती तो है ही और इस प्रकार सरेआम इज़्ज़त उतार लेना अच्छी बात नही है अगर जनता नाराज़ है तो चाहे अकेले में नाराज़गी व्यक्त कर लें भले मौका मिलने पर दो-चार जूते मार लें पर इस प्रकार भरी भीड़ में नेता जी के ऊपर जूते ना उछाले क्योंकि सब बात तो एक जगह सबसे बड़ी बात तो यह है कि इस घटना का इंटरनेशनल न्यूज़ भी बनता है जिससे पूरे विश्व को पता चल जाता है कि फलाँ देश के नेता के ऊपर जूते फेंके गये अकेले में निपट लेने से कम से कम यह स्थिति तो नही रहेगी

Friday, October 22, 2010

धत्त तेरी मँहगाई-----(विनोद कुमार पांडेय)

ग़ज़ल के सिलसिले को एक अल्प विराम देते है और आप सब को अपनी एक हास्य-व्यंग कविता से रूबरू करवाता हूँ...आज के ताज़ा हालत पर आधारित है....उम्मीद करता हूँ मेरा यह प्रयोग भी आप सब को अच्छा लगेगा..साथ ही साथ एक खुशी और व्यक्त करना चाहूँगा की प्रस्तुत कविता ब्लॉग पर मेरी १०० वीं पोस्ट है..मैने भी शतक लगा दिया आप सब ने मुझे पढ़ा-सुना-समझा और इतना प्यार दिया सभी का दिल से आभारी हूँ....धन्यवाद!


धत्त तेरी मँहगाई|

जब से यह सरकार बनी,
भौहें रहती तनी तनी,
भाव करें फिर जेब टटोले,
ठंडा पड़के पीछे हो ले,
पब्लिक की हालत है खस्ती,
चीज़ नही कोई भी सस्ती,
मुरझाए हरदम रहते हैं,
मन ही मन में ये कहते है,

कैसी शामत आई |धत्त तेरी मँहगाई

दाम सुने लग जाए टोना,
सब्जी जैसे चाँदी-सोना,
भिंडी-टीन्डा साग टमाटर,
लगे देखने में ही सुंदर,
आलू,बैगन,कटहल,लौकी,
झटपट भज जाती है सौ की,
सब्जी लेकर जब भी आएँ,
दाम जोड़ते ही चिल्लाएँ,

हे सरकार दुहाई |धत्त तेरी मँहगाई

बजट भी डाँवाडोल हो गई
छप्पन की पेट्रोल हो गई,
चाय की प्याली भार हुई
चीनी चालीस पार हुई,
दाम बढ़ गये गैसों के भी,
दूध,दही व भैसों के भी,
गगन छू रही दाम दाल की,
ऐसी-तैसी हुई हाल की

ये हालत पहुँचाई |धत्त तेरी मँहगाई

भीषण रोग बनी मँहगाई
जनता बस पिसने को भाई,
कैसे होगा बेड़ा पार,
कुछ तो सुन लीजे सरकार,
सब अधिकार तुम्हारे पास,
मत तोड़ों सबका विश्वास,
मँहगाई पर कसो लगाम,
खुश हो भारत की आवाम,

ऐसे बनो नही कस्साई |धत्त तेरी मँहगाई|

Sunday, October 3, 2010

शेर-बाघ के गये जमाने,कनखजूरे सरदार हो गये----(विनोद कुमार पांडेय)

यार सभी बेकार हो गये
दिल में सबके खार हो गये

शब्दबाण जो अपनों के थे
सीने के उस पार हो गये

स्वारथ सब रिश्तों पर भारी
मतलब के व्यवहार हो गये

ना जीने ना जीने देना
जीवन के आधार हो गये

नवयुग की परिवार प्रणाली
अम्मा-बाबू भार हो गये

लाभ मिला उनसे तो जानो
वो फूलों के हार हो गये

खून चूसने वाले अब तो
वोट जीत सरकार हो गये

शेरों के लद गये जमाने
देख गधे सरदार हो गये

Saturday, September 25, 2010

आधुनिक बदलाव का एक और रूप---एक व्यंग रचना---विनोद कुमार पांडेय

बिगड़े युवाओं के बारे में बहुत कुछ कह चुका हूँ..अब एक हास्य-व्यंग रचना दूसरी पक्ष में जाती हुई...कुछ विशेष के लिए ही है अतः सभी से अनुरोध है, इसे अन्यथा ना लें और इसे किसी विवाद का कारण भी
ना
बनाएँ..बस रचना का आनंद लें..और आशीर्वाद दें........धन्यवाद

धन से तो बिगड़ी-बिगड़ी हैं,मन से भी बिगड़ी हैं
चार हाथ लड़कों से आगे,कुछ लड़की भी खड़ी हैं

कैसा ये बदलाव हो रहा,कुछ अच्छा,कुछ बुरा
रख देंगी सब बदल कर,ज़िद पे अपने अड़ी हैं

फैशन के इस दौर में, डूब गई इतनी
झूठी चकाचौंध ले संग, पंख लगा कर उड़ी हैं

मम्मी-पापा ढूढ़ रहें हैं हिन्दुस्तानी दूल्हा
जिनकी बिटिया बीयर-बार में टल्ली हुई पड़ी हैं

नये जमाने के रंगों में,यह भी भुला दिया
उनके सपनों से भी महँगी,पापा की पगड़ी है

Monday, September 20, 2010

मेरी एक रेल यात्रा संस्मरण---गारंटी है,कोशिश करके भी आप हँसी रोक नही पाएँगे-----(विनोद कुमार पांडेय)

व्यस्तता के दौर से कुछ पल निकाल कर आप लोगों को हंसाने के लिए फिर से आ गया..प्रस्तुत कविता डेढ़ साल पहले की है जिसे मेरी पहली विशुद्ध हास्य कविता का दर्जा भी मिला है...कविता एक संस्मरण को समेटे हुई है जो निश्चित रूप से आप सबका मनोरंजन करेगी...कविता का आनंद लीजिए और आशीर्वाद दीजिए..धन्यवाद

अब की होली पे घर जाने का प्लान बनाया,
ये बात पहले समझ में नही आई थी,
इसलिए रिज़र्वेशन भी नही कराई थी,

ऑफीस से छूटते ही घर जाने को बेकरार हो गया,
अनुराग को साथ लिया और तैयार हो गया,
रिज़र्वेशन था नही यात्रा में परेशानी थी,
क्योंकि हम लोगो ने जनरल में जाने की ठानी थी,

स्टेशन पर पहुँचतें ही
अनुराग डरने लगा
,
मेरा भी घर जाने का ख्याल मरने लगा,
फिर भी हमने साहस को जगाया,
और हिम्मत करके प्लेटफार्म नंबर-११ पे आया,

भारी भीड़ थी होली का सीजन था,
कॉलेजों की सामूहिक छुट्टी भी इसका एक रीजन था,
कुंभमेले में बसंत पंचमी का दिन लग रहा था,
और कोलकाता से चिड़ियाघर का सीन लग रहा था,

बच्चे-बड़ों और बूढ़ों के चिल्लाने की आवाज़ आ रही थी,
आदमी की भीड़ आदमी को ही दबा रही थी,

प्लेटफार्म का दृश तो देख कर डरने लगा,
वापस लौट जाने का मन करने लगा,
तभी ट्रेन के सीटी की आवाज़ कान में आई,
तो हमने कदम और तेज बढ़ाई,

मेरे साथ अनुराग ने भी हिम्मत जुटाया था,
अटैची सिर पर बैग बगल में चिपकाया था,
भागते-भागते हम पहुँचे प्लेटफार्म के किनारे,
बिना कुछ किए बस धक्कों के सहारे,

लोग ट्रेन की ओर बढ़ने लगे
सीट पाने के लिए लड़ने-झगड़ने लगे
न जानते हुए भी एक दूसरे से बकवास करने लगे,
हर आज़माईस में ट्रेन में चढ़ने का प्रयास करने लगे,
कुछ चढ़ने और कुछ चढ़ाने में परेशान थे,
उनकी तो हालत ही खराब थी जिनके पास समान थे,

धीरे-धीरे ट्रेन स्टेशन से चलने लगी,
जनरल बोगी कैपेसिटी से आगे बढ़ने लगी,
फिर भी लोग दौड़ कर आने जाने लगे,
बोरिया-बिस्तर लेकर भागमभाग मचाने लगे,

समान वाले चाचा जी समान ही रखते रहे,
सीट मिल ही नही पाई,
वहीं फर्श पे ही बैठ गये लेकर अपनी लुगाई,
भागमभाग में सामान भी छूटने लगे,
सीसे के कुछ आइटम धक्के से टूटने लगे,

पंडित जी की रेडियो, वी. सी. आर. और टी. वी. भी छूट गई,
एक नौजवान की ती बीवी ही छूट गई,

हम और अनुराग धक्के में घुसे पर बैठने नही पाए,
थोड़ी जगह पाकर वही पे पैर फैलाए,
कुछ देर बाद मेरी साँसे उपर नीचे होने लगी,
मेरे पैर पर अटैची रख कर एक दादी जी सोने लगी,

उनको जगाकर अटैची को उपर लटकाया,
तब जाके चैन की सांस ले पाया,

अनुराग भी ग़लती का एहसास कर रहा था मेरे साथ आकर,
इस जनरल बोगी के सफ़र में बैग-अटैची साथ मे लाकर,
गर्मी इतनी की उसका सर चकरा रहा था,
उपर टंगा बैग उसके सर से टकरा रहा था,

अटैची रख कर किसी तरह पैर समेटा था,
और अटैची पर एक छोटा बच्चा लेता था,
बच्चे की मम्मी बाथरूम के गेट पर घोड़े बेच कर सो रही थी,
और बाथरूम आने जाने वालों को जबरदस्त परेशानी हो रही थी,

एक सीट पे आठ-आठ लोग पड़ रहे थे,
उस पर भी कुछ बैठने की जुगाड़ में लड़रहे थे,

एक भाभी जी पर्श छुपा रही थी,चोरी से घबरा कर,
भैया जी तिलमिला उठे पसीने से नहाकर,
पसीने उनका नही उपर बैठे दादा जी से आ रहा था,
बगल में बैठा बच्चा न जाने क्यों शरमा रहा था,
शायद पसीने के साथ कुछ और नीचे आ रहा था,
और बच्चा अपनी इस ग़लती को पसीने से छुपा रहा था,

हमलोग भी पैरो को मोडते-फैलाते सोते जागते रहते,
बाहर के मौसम को टुकूर-टुकूर ताकते रहते,
बाहर का मौसम अंदर से काफ़ी सुखद था,
राहत दे रहा थी, अंदर का हाल मन को सिर्फ़ घबराहट दे रहा .

ट्रेन की जनरल दुर्दशा देख कर सहम गया,
सोचा कभी ऐसे यात्रा नही करूँगा,
जहाँ पर जैसे भी हूँ पड़ा रहूँगा,
पर क्यों ऐसे जाना पसंद करते है,
पसंद करते है या उनकी मजबूरियाँ है,
या उनके अपने लोगों से जो दूरियाँ है,
उसी दूरी को मिटाने के लिए इतना दर्द सहते है,
यह उनके प्यार को दर्शाता है,
की आदमी परेशान तो होता है,
पर जनरल यात्रा करने से नही घबराता है.

Wednesday, September 8, 2010

नवरत्न जनकल्याण सोसाइटी एवं कायाकल्प सांस्कृतिक संस्थान द्वारा नोएडा में आयोजित युवा देशभक्ति कवि सम्मेलन की कुछ झलकियाँ--(विनोद कुमार पांडेय)

नवरत्न जनकल्याण सोसाइटी एवं कायाकल्प सांस्कृतिक संस्थान द्वारा नोएडा में आयोजित युवा देशभक्ति कवि सम्मेलन की कुछ झलकियाँ, कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के तौर पर महान लेखिका श्री सरोजिनी कुलश्रेष्ट जी एवं पूर्व रक्षा सचिव श्री योगेंद्र नारायण जी उपस्थित होकर युवा कवियों को सम्मानित किए. कार्यक्रम का संचालन श्री अशोक श्रीवास्तव जी ने किया.




आदरणीय सरोज़िनी जी एवं योगेंद्र नारायण जी एवं सभी गणमान्य लोग दीप वाणी पूजन करते हुए





कायाकल्प के महासचिव एवं कवि दीपक श्रीवास्तव जी सरोजिनी जी से सम्मान ग्रहण करते हुए





माननीय योगेंद्र जी से सम्मान ग्रहण हुए मैं यानि विनोद





और अंत में मंच पर काव्य पाठ करते हुए मैं




चलिए अब आप सब के समक्ष प्रस्तुत है एक हास्य छ्न्द जो उन दिनो लिखी थी जब माई नेम इज ख़ान रिलीज़ विवाद चल रहा था.


बी. ए. पास बाप हो जो आजकल तब जानो,
हो जाएगी बेटे की पढ़ाई में बेइज़्ज़ती,
मूरख जो चेला हो तो उसको संभालें रखो,
कर देगा किसी दिन बड़ाई में बेइज़्ज़ती,
माई नेम इज ख़ान,रिलीज़ हो गया था देखो,
आन,बान,शान की लड़ाई में बेइज़्ज़ती,
बाल ठाकरे सा शेर मांद में घुसा जो फिर,
बुढऊ की हो गई बुढाई में बेइज़्ज़ती.

Saturday, September 4, 2010

फलक पे झूम रही साँवली घटाएँ हैं--------(विनोद कुमार पांडेय)

आज प्रस्तुत है,आदरणीय पंकज सुबीर जी के ब्लॉग पर वर्षा के तरही मुशायरे में सम्मिलित मेरी एक ग़ज़ल...शुरू के 5 शेर पर पंकज जी का आशीर्वाद मिला है, मैने उसके बाद कुछ शेर और जोड़ दिए और वो सब मेरे शेर जस के तस आप सब के सम्मुख है..शिल्प की कुछ कमी हो सकती है मगर मैं खुद को रोक नही पा रहा हूँ....अब आप सब लोगों के आशीर्वाद की ज़रूरत.....धन्यवाद


फलक पे झूम रहीं साँवली घटाएँ हैं
हवाएं कानों में चुपके से गुनगुनाएँ हैं

फुहार गाने लगी गीत हसीं रिमझिम के
ठुमक-ठुमक के थिरकती हुई हवाएं हैं

उड़ेलने लगे बादल गरज के जलधारा
चमक-चमक के बिजलियाँ हमें डराएँ हैं

पड़े फुहार तो हलचल सी मचे तन-मन में
हज़ारों ख्वाइशें पल भर में मचल जाएँ हैं

उठे लहर जो कभी दिल में हसीं लम्हों का
खुदी से बात करें,खुद से ही शरमाएँ हैं

कोई स्वागत में खड़ा है,उफनते सावन के
कुछ घनघोर बारिशों से तिलमिलाएं हैं

बयाँ न हो रहीं किसान के घर की खुशियाँ
यूँ लगे कई सदी बाद, मुस्कुराएँ हैं

कहीं बूँदे,कहीं बारिश,कहीं है बाढ़
कहीं-कहीं तो मौत बन के बरस आएं हैं

तबाह कर दिए कुछ गाँव-कुछ शहर भी
सहम-सहम के लोग जिंदगी बिताएं हैं

टपकती बूँद छप्परों से भी गवाह बनी
ग़रीब किसी तरह लाज बस बचाएं हैं

Thursday, September 2, 2010

चार दिन की जिंदगी है-----एक हास्य-व्यंग रचना---(विनोद कुमार पांडेय)

इस महीने पूरा प्रयास रहेगा आप लोगों को हँसाने का, उसी सिरीज़ में आज प्रस्तुत है एक हास्य-व्यंग की ग़ज़ल जो शायद युवा लोग को कुछ ज़्यादा ही पसंद आएगी...व्यंग की दृष्टि से पढ़े और आनंद लें....धन्यवाद

चार दिन की जिंदगी है, जिये जा
मौज सारे जिंदगी के, लिये जा

सभ्यता के नाम पर मॉडर्न हो
छोड़ कर ठर्रा विदेशी पिये जा

क्या पता कल हो न हो,ये सोचकर
सब्र को हर रोज फाँसी, दिये जा

बाप ने जितना बचा कर है रखा
छान-घोंट सब बराबर किये जा

हादसों का है शहर तुम क्या करोगे
देख कर बस होंठ अपने सिये जा

Wednesday, August 18, 2010

तेरी आँचल की छाया में,मुझको तो संसार दिखे----(विनोद कुमार पांडेय)

ग़ज़ल के पोस्ट को कुछ दिन विश्राम देते हुए इस महीने केवल कविता पोस्ट करने का निर्णय लिया. इसी क्रम को आगे बढ़ाता हूँ आज के इस भावपूर्ण कविता के साथ..धन्यवाद!!!

तेरी आँचल की छाया में,मुझको तो संसार दिखे,

याद नही पर सब कहते हैं,
जब घुटनों पर चलता था,
पथरीले आँगन में अक्सर,
गिरता और संभलता था,

चोट मुझे जब-जब लगती थी,
दर्द तुम्हे भी होती थी,
हर एक ठोकर पर मेरे,
तुम भी तो साथ में रोती थी,

सोच रहा हूँ आज बैठ कर अब तक कितनी दूर चला,
मेरे हर एक पग पे मैया, तेरा ही उपकार दिखे,


मैने बस महसूस किया,
तुम हर वो बातें जान गई,
मेरे अंदर छिपी भावना को,
झटपट पहचान गई,

कष्ट न जानें कितने झेलें,
मगर हमें इंसान बनाया,
खुद भूखे-प्यासे रह कर के,
हमको अमृत कलश पिलाया,

पहली कौर खिलायी तूने भले नही हो याद मुझे,
पर उस पहली कौर के आगे,फीका हर आहार दिखे,


मेरे हर अपराध की माता,
सज़ा तुम्हे भी मिलती थी,
दुनिया की कड़वी बातें,
पग-पग पर तुमको खलती थी,

फिर भी तुमने हँसते-हँसते,
हमको इतना बड़ा किया,
ज़िम्मेदारी हमें सीखा कर,
के पैरों पर खड़ा किया,

रक्षंबंधन,ईद,दशहरा,होली और दीवाली सब है,
आशीर्वाद नही जब तेरा,सुना हर त्योहार दिखे,


सारे रिश्ते-नाते देखे,
तुझ जैसी ना कहीं दिखे,
तेरी ममता सब पर भारी,
जिधर देखता वहीं दिखे,

अब तक जो कुछ,भी पाया हूँ,
सब कुछ आशीर्वाद तुम्हारे,
याद मुझे हैं तेरी वाणी,
सद्दविचार संवाद तुम्हारे,

जितना भी अब तक पाया हूँ,तुच्छ है सब कुछ माँ के आगे,
चुटकी जैसा यह भौतिक सुख, भारी माँ का प्यार दिखे.

तेरी आँचल की छाया में,मुझको तो संसार दिखे,

Saturday, August 14, 2010

आज़ाद भारत के आज के स्वरूप का एक सूक्ष्म विश्लेषण ..जय-जय हिन्दुस्तान------(विनोद कुमार पांडेय)

समस्त भारतवासियों को स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक बधाई,आइए एक सूक्ष्म समीक्षा के साथ, आज़ादी पर्व मनाते हैं.

आज़ादी का पर्व मनाओ,जय भारत जय बोल कर,
है,कितने आज़ाद यहाँ हम,देखो आँखे खोल कर,
जय जय हिन्दुस्तान ,
भारत देश महान.

आज़ादी बस नाम का है,जित् देखो तित लाचारी है,
धनी धनों से खेल रहा है,निर्धन बना भिखारी है,
बंदिश में भगवान यहाँ,और क़ैद में यहाँ पुजारी है,
नज़रें डरी डरी रहती हैं,चारो ओर शिकारी है,

देश की हालत परख सको तो,परखो थोड़ा डोल कर,
हैं,कितने आज़ाद यहाँ हम,देखो आँखे खोल कर,
जय जय हिन्दुस्तान,
भारत देश महान,

जूझ रहें हैं सब जीने को,कैसी है यह युग आई,
एक तरफ पानी की किल्लत,एक तरफ है मंहगाई,
आँसू सूख गये अम्बर के,धरती भी है शरमाई,
भरा पड़ा था जहाँ खजाना,वहाँ भी कंगाली छाई,

पीने का पानी भी मिलता है,भारत मे तोल कर,
हैं,कितने आज़ाद यहाँ हम,देखो आँखे खोल कर,
जय जय हिन्दुस्तान,
भारत देश महान,

पूछो खुद से यह कैसी,आज़ादी की परिभाषा है,
धर्म क़ैद में,जाति क़ैद में,क़ैद मे घुटति भाषा है,
चार दीवारी मे दब जाती,लाखों की अभिलाषा है,
आज़ादी के नाम पे मिलता, उनको सिर्फ़ हताशा है,

आज़ादी का रूप यही है,बोलो हृदय टटोल कर,
हैं,कितने आज़ाद यहाँ हम,देखो आँखे खोल कर,
जय जय हिन्दुस्तान,
भारत देश महान,

सुबह जो निकला घर से,क्या वो शाम को वापस आएगा,
आतंको से देश हमारा कब, छुटकारा पाएगा,
यह भय दूर हो जब मन से,आज़ाद देश हो जाएगा,
तब जाकर सच्चे वीरों का, सपना सच कहलाएगा,

जिस आज़ादी के खातिर वो,जहर पिए थे घोल कर,
हैं,कितने आज़ाद यहाँ हम,देखो आँखे खोल कर,
जय जय हिन्दुस्तान,
भारत देश महान,

भगत सिंह,आज़ाद को सोचो,उनको नमन करो जाकर,
आज़ादी का अर्थ पढ़ो फिर,पहरे से बाहर आकर,
सत्य सनातन कभी डरे ना,किसी झूठ से भय पाकर,
मन की चलो बेड़ियाँ काटो,मन मे आज़ादी लाकर,

नाम करो भारत भूमि की,निज जीवन अनमोल कर,
हैं,कितने आज़ाद यहाँ हम,देखो आँखे खोल कर,
जय जय हिन्दुस्तान,
भारत देश महान,