Friday, January 29, 2010

प्रतिष्ठित समाचार पत्र हरिभूमि के दिल्ली संस्करण में प्रकाशित मेरी एक और नई व्यंग- नेताओं का अपमान नहीं सहेगा हिन्दुस्तान.

मेरी यह दूसरी व्यंग जिसे हरिभूमि में स्थान मिला जिसके लिए मैं चाचा अविनाश वाचस्पति जी का भी बहुत आभारी हूँ, जिनके आशीर्वाद से आज यह कवि एक व्यंग रचनाकार के रूप में दिखाई दे रहा है. साथ ही साथ आप सभी का भी बहुत बहुत धन्यवाद जो निरंतर अपने आशीर्वाद से इस नये रचनाकार का उत्साह बढ़ाते रहें।

भारत की बेचारी जनता को विभिन्‍न प्रकार के झटके झेलने की आदत हो गई है। लगता है कॉमनवेल्‍थ गेम्‍स में इन लटकों झटकों पर भी एक खेल प्रतियोगिता का आयोजन होकर रहेगा। वैसे अभी फिलहाल एक और जोरदार झटका लगा है जब यह खुलासा हुआ है कि संसद सदस्यों और एक आम जनता के दाल-रोटी में ज़मीन एवं आसमान जैसा अंतर हैं। पहले से ही मँहगाई की मार झेल रही भोली-भाली जनता सूख सूख कर लकड़ा गई है। 50 रुपये के हिसाब से मिलने वाली एक प्लेट दाल को हमारे मंत्री जी मात्र डेढ़ रुपए में सटक रहे हैं वो भी शुद्ध देशी घी के छौंक के साथ,ज़रा आप ही सोचिए जिस दाल के दर्शन के लिए भी अब जनता को अपनी ढीली जेबें और ढीली करनी पड़ती है उसे मंत्री महोदय सस्ते दाम में हथियाये जा रहे हैं और उसमें तैराकी कर रहे हैं। भला यह भी कोई न्याय है.वैसे जनता को और गरीबों को तो यह अधिकार बिल्‍कुल भी नहीं है कि मंत्री जी के पीने खाने पर एतराज जताये। हम एतराज कर भी नहीं रहे हैं हम तो उनका और दाल का महिमा मंडन कर रहे हैं। उन्‍हें तो खूब खाना चाहिये और उससे अधिक फैलाना चाहिये जिससे गरीब उस फैलाये हुये में लोट तो लगा सकें। आखिर जनता के दिये हुये वोट ही तो नेताओं के लिए मज़े उत्‍पादक बनकर सामने आते हैं। मीडिया का इस प्रसंग को मतदाताओं के सामने लाना, नेताओं पर एक तरह से जूता चलाना ही है। मँहगाई इतनी अधिक हो गई है कि जूते भी महंगे हो गये हैं इसलिए मीडिया अब जूते खबर की शैली में मार रहा है।

मौज में हैं नेता और संसद विकासमान है। जबकि सड़क तक यही हल्ला मचा हुआ है कि भाई बड़ी ज़ोर की मँहगाई है और सरकार भी हाथ खड़े किए बैठी है तो ठीक है हाथ खड़े किए रहो बढ़िया बात है पर ये भी तो ध्यान दो कि मँहगाई में समरूपता हो,जब तुम उनके साथ न्याय नहीं कर सकते जो ग़रीब है,अफोर्ड नहीं कर सकते तो लोकतंत्र के उन बड़े धनाढ्य महापुरुषों से इस प्रकार टोकन मनी लेकर सरेआम उनका अपमान किया जा रहा है।जनता है तो वसूलने के लिए इसलिए जनता को 50 की जगह 55 की एक प्‍लेट दाल बेची जाए परंतु सांसदों को बेवजह तंग न किया जाए। लेकिन ऐसा कुछ भी नही अपने भारत में इस समय तो सब कुछ उल्टा चल रहा है जो बेचारे है उनके लिए मँहगाई और जो वैसे ही राजगद्दी पर बैठे राज कर रहे है उनके लिए सब कुछ सस्ता और उत्तम क़्वालिटी का भी मगर ऐसा क्यों,ये भी कोई बात हुई इतने करोड़ों खर्च कर करके वोट हथियाये गये हैं और उन्‍हें दाल भी खरीदनी पड़े तो यह देश का अपमान है। गरीबों का अपमान है।

गरीबों का तो वैसे ही कोई मान नहीं है परंतु नेताओं का अपमान गरीब नहीं सहेंगे। क्योंकि ग़रीबों की आस इन्ही के तो कंधे पर टिकी है,भले आश्वासन ५ साल तक आश्वासन ही बना रहे मगर बेचारे ग़रीब कभी धैर्य नही छोड़ते और अंत तक इन महापुरुषों के सामने अपनी विश्वासों की अग्निपरीक्षा देते रहते है,अब यह अलग बात है है कि ऐसी किसी भी प्रकार की परीक्षा में वो पास नही हो पाते,फिर भी धैर्य देखिए अगले ५ साल के लिए फिर से तैयार, तो अब जब अपनी भोली जनता ऐसी सोचती है तो भला वो अपमान कैसे सहेंगे...कभी नही सहेंगे...तो भईया सब से बढ़िया एक बात है की अगर ग़रीब की दाल-रोटी महँगी है तो ठीक है बेचारे सह लेंगे, उनकी तो आदत पड़ गई है, पर इस प्रकार नेताओं का अपमान ना हो..उनके खाने-पीने का खास ख्याल रखा जाए चाहे इसके लिए सरकार को मँहगाई और ही ना क्यों ना बढ़ानी पड़े..वैसे भी क्या फ़र्क पड़ता है सरकार ने तो वैसे ही हाथ खड़े कर रखे है.

Friday, January 22, 2010

अपने ही समाज के बीच से निकलती हुई दो-दो लाइनों की कुछ फुलझड़ियाँ-3

कुछ ऐसे भी वीर हैं,भारतवर्ष में आज,
जिनकी अम्मा रो रहीं,देख पूत के काज.

मलमल का कुर्ता पहिन,घूम रहें हैं गाँव,
खबर नही क्या चल रहा,आटा-दाल का भाव.

आलस में डूबे हुए,इतने हैं उस्ताद,
घर में आते हैं मियाँ,दिन ढलने के बाद.

बीड़ी व सिगरेट में,फूँक दिए कुल देह,
बेच दिए बर्तन कई,घर में मचा कलेह.

नही कोई परवाह इन्हें,घर हो या परिवार,
चाहे भैया फेल हो,या हो बहिन बीमार.

जिंदा जब तक बाप है,तब तक है आराम,
फ्यूचर इनका क्या कहें,इज़्ज़त राखे राम.

Sunday, January 17, 2010

जब आप सुधर गये, तो एक दिन वो भी सुधर जाएगा.

पिछले कुछ दिनों से गंभीर सामयिक रचनाओं के बाद आज फिर से अपने पुराने मजाकिया अंदाज में एक हास्य से भरी मजेदार घटना प्रस्तुत कर रहा हूँ और साथ ही साथ उम्मीद करता हूँ कि आपको पसंद भी आएगी..धन्यवाद..

फर्स्ट स्टैंडर्ड के एक बालक को,
आधुनिकता के सर्वोच्च सुचालक को,
पिता जी अँग्रेज़ी पढ़ा रहे थे,
अपने महाज्ञानी बच्चे का ज्ञान बढ़ा रहे थे.

हिन्दी से अँग्रेज़ी का ट्रांसलेशन समझा रहे थे,
बीच बीच में रिमोर्ट का बटन भी दबा रहे थे,
टेलीविजन के बड़े शौकीन थे,
शायद इसीलिए कुछ ऐसे सीन थे,

पढ़ाई के इसी दौर में,
अपने नटखट बच्चे से फिर पूछे,
"पानी ठंडा है"इसका अँग्रेज़ी अनुवाद बताओ,
सही तरीके से ट्रांसलेशन करके दिखलाओ,
बच्चे ने पहले तो अपनी ज़ोर लगायी,
पर बात कुछ बन नही पायी,
थोड़ी देर सोचने के बाद अचानक ही,
उसके दिमाग़ की बत्ती जली,
चेहरा कुछ इस कदर खिला,
जैसे कोई खजाना मिला,
मुँह खोला और ज़ोर से बोला,
पानी मतलब वाटर और ठंडा मतलब कोकाकोला,
इसलिए सही ट्रांसलेशन हुआ,"वॉटर ईज़ कोकाकोला",

यह सब टेलीविज़न का प्रभाव हैं,
पिताजी डरे,
बेटे के गाल पर दो तमाचा धरे,
फिर बीवी को बुलाए,समझाए,
कि घर में अब टी. वी. खुलने नही पाए,
यह टी. वी. ही है,जो इसे बिगाड़ रहा है,
मैं अँग्रेज़ी पढ़ा रहा हूँ,
और ई ससुरा डायलॉग झाड़ रहा है.

बच्चा है,सब ठीक हो जाएगा,
बीवी समझाई,
पर इनकी समझ में कुछ नही आई,
बातों बातों में बीवी ने,
एक और छुपी बात बोल दी,
इनकी भी एक पोल खोल दी,
बोली एक समय आप भी तो बिगड़े थे,
मैं नही जानती आप ने ही बताए थे,
सेकेंड स्टॅंडर्ड में रामायण के लेखक,
रामानंद सागर लिख कर आए थे,
क्या यह टेलीविज़न का प्रभाव नही था?,
और याद है कुछ और भी तो खास किए थे,
भारत का दिल दिल्ली की जगह वोल्टास किए थे,

आख़िर बेटा है आपका,
बाप पर ही जाएगा,
जब आप सुधर गये,
तो एक दिन वो भी सुधर जाएगा,

बोलती बंद हो गयी पातिदेव जी की,
आगे कुछ नही बोल पाए,
अपने दिन याद किए,
और मुस्कुराते हुए बाहर की ओर हो लिए.

Tuesday, January 12, 2010

पावनता गंगाजल की, अपने अस्तित्व को जूझ रही.

मकर संक्रांति की अग्रिम शुभकामना के साथ एक चिंतनीय प्रकरण आप सब के समक्ष रखना चाहता हूँ.साथ ही साथ इस प्रक्रिया में सभी से सहयोग की भी अपील करता हूँ..


पावनता गंगाजल की,
अपने अस्तित्व को जूझ रही,

बूँदों से स्पर्शित होकर,
पापी मन पवित्र कहलाता,
तरो ताज़गी उपजे तन में,
निर्मल जल से जब धूल जाता,
वह जल जिसका एक आचमन,
स्वर्गद्वार के पट को खोले,
अंजुलि भर जलधारा मानो,
हरे विकार भक्ति रस घोले,

मंद पड़ गये भक्ति भाव सब,
जल विकृत हो सूख रही,

भागीरथ के अथक प्रयासों से,
ज़ो पृथ्वी पर आयी हैं,
शिव की जटा सुशोभित करती,
नीर धरा पर बरसायी हैं,
हिमआलय की गोद से निकली,
नदियों की रानी स्वरूप,
मगर आज धूमिल दिखती है,
क्यों उनका प्राचीनतम रूप,

कलयुग के समक्ष नतमस्तक,
मन ही मन सब बूझ रही,

गंगाजल की आज शुद्धता,
धीरे धीरे क्षीण हो रही,
दूषित 'कल' के जल से गंगा,
निर्मलता से हीन हो रही,
सोचो कुछ हे भारतवासी,
हृदय से एक संकल्प उठाओ,
गंगा माँ की पुनः शुद्धता,
जननी को फिर से दिलवाओ,

जो प्रतीक थी पवित्रता की,
आज वहीं अपवित्र हो रही.

Thursday, January 7, 2010

आधी रात का चाँद और मैं---मेरी पचासवीं कविता

नवंबर माह के यूनिकविता प्रतियोगिता में हिन्दयुग्म द्वारा सम्मानित मेरी एक कविता..


रात के आगोश में,

सितारों को छेड़ता,चाँद,

और ज़मीं पर मैं,

अपने मानवीय अस्तित्व का वहन करता हुआ,

दोनों उलझ पड़े,बातों की गहमा-गहमी में,


बादलों की परतों से,

आँखमिचौली खेलता हुआ,

चाँद आशातीत होकर मुझसे कहा,

कितनी खूबसूरत है,यह धरा,

और कितने प्यारे हो,तुम इंसान लोग,

काश,मैं भी इंसानों के बीच होता,

बादलों के साथ बरसों गुज़ारें हमनें,

कुछ पल नदी,झरनो एवम् पर्वतों के साथ भी बिताता,

शीतलता और निर्मलता मेरे अभिन्न अंग हैं,

शांति,प्रेम और भावनाओं का प्रदर्शन,

मानव से सीख लेता,मैं,

अभी तक आसमान,बादल,तारे हमारे हैं,

फिर संपूर्ण ब्रह्मांड का दिल जीत लेता,मैं,


बस इतना कहा चाँद ने, और हँसी निकल पड़ी मुझे,

सोचा,हाय रे इंसानी फ़ितरत, चाँद भी इसके झाँसे में आ गया,

थोड़ी देर सोचता ठहरा रहा,

फिर चाँद से मैने बोला,

चाँद तुम बड़े भोले और नादान हो,

प्रेम,भावनाएँ यहाँ सब दिखावा है,

रात के अंधेरे का छलावा है,

कभी फुरसत मिले तो दिन में आना,

और मानवीय कृत्यों का साक्षात सबूत पाना,

अभी सो रहे हैं, इसलिए शांति के उपासक प्रतीत हो रहे हैं,


इंसान ही इंसान की नींदे उड़ाते है,

फिर खुद चैन की नींद सोते है,

हे चाँद,वास्तव में इंसान तो पत्थर के बने होते हैं,

सूरज से पूछना, इंसानों की चाल-ढाल,रूप-रंग,

चालाकी,एहसानफरामोशी के ढंग,

तुम्हारी शीतलता और निर्मलता सलामत रहे,

शुक्र है खुदा का,तुम दिन में नही आते,

अन्यथा इंसानी फ़ितरत देख कर,

तुम भी सूरज की भाँति आग में जल जाते!!

Sunday, January 3, 2010

इस साल का पहली कविता जैसे एक पैगाम, अपने ही देश के कुछ लोगों के नाम,कृपया बुरा ना मानें क्योंकि कही कुछ तो ऐसा है ही.

हम जनता है,
हमको तो बस शोर मचाना आता है,

मुट्ठी में है लोकतंत्र,
लेकिन हम अज्ञान पड़े,
बस रोज़ी-रोटी मिल जाए,
यही हमारे लिए बड़े,
सोच यही पर सिमट गयी है,
इसीलिए कुछ नही चली,
जिधर घूमाओ घूमेंगे हम,
बने हुए बस कठपुतली,

जनता होने का हमको,
बस फर्ज़ निभाना आता है.

नही किसी को ये परवाह,
कौन दुखों में है जकड़ा,
सबकी फ़ितरत में बस ये है,
हमसे आगे कौन बढ़ा,
रोते फिरते हैं गैरों से,
जबकि अपने हाथ है सब,
बिना परिश्रम सब मिल जाए,
इतने तो उस्ताद है सब,

मूरख को भी उस्तादी का,
ढोल बजाने आता है.

भाड़ में जाए भाईचारा,
सबकी अपनी अलग कहानी,
अपनी बने, देश भट्ठी में,
यही आज के युग की बानी,
हुई पड़ोसी के घर चोरी,
हम पहुँचे चोरी के बाद,
कौन पड़े भई, इस झंझट में,
अपना घर तो, जिंदाबाद,

बीस बहाने बतला कर,
घर में छुप जाना आता है.

कैसे हो उत्थान देश का,
इसकी फ़िक्र सभी करते है,
कैसे कदम उठाया जाए,
इसकी ज़िक्र से सब बचते है,
छोटी-छोटी बात को लेकर,
करते रहते जूता-लात,
कैसे देश सुधर पाएगा,
जब होंगे ऐसे हालात,

यहाँ देश की जनता को,
बस बात बनाना आता है.