Saturday, September 25, 2010

आधुनिक बदलाव का एक और रूप---एक व्यंग रचना---विनोद कुमार पांडेय

बिगड़े युवाओं के बारे में बहुत कुछ कह चुका हूँ..अब एक हास्य-व्यंग रचना दूसरी पक्ष में जाती हुई...कुछ विशेष के लिए ही है अतः सभी से अनुरोध है, इसे अन्यथा ना लें और इसे किसी विवाद का कारण भी
ना
बनाएँ..बस रचना का आनंद लें..और आशीर्वाद दें........धन्यवाद

धन से तो बिगड़ी-बिगड़ी हैं,मन से भी बिगड़ी हैं
चार हाथ लड़कों से आगे,कुछ लड़की भी खड़ी हैं

कैसा ये बदलाव हो रहा,कुछ अच्छा,कुछ बुरा
रख देंगी सब बदल कर,ज़िद पे अपने अड़ी हैं

फैशन के इस दौर में, डूब गई इतनी
झूठी चकाचौंध ले संग, पंख लगा कर उड़ी हैं

मम्मी-पापा ढूढ़ रहें हैं हिन्दुस्तानी दूल्हा
जिनकी बिटिया बीयर-बार में टल्ली हुई पड़ी हैं

नये जमाने के रंगों में,यह भी भुला दिया
उनके सपनों से भी महँगी,पापा की पगड़ी है

Monday, September 20, 2010

मेरी एक रेल यात्रा संस्मरण---गारंटी है,कोशिश करके भी आप हँसी रोक नही पाएँगे-----(विनोद कुमार पांडेय)

व्यस्तता के दौर से कुछ पल निकाल कर आप लोगों को हंसाने के लिए फिर से आ गया..प्रस्तुत कविता डेढ़ साल पहले की है जिसे मेरी पहली विशुद्ध हास्य कविता का दर्जा भी मिला है...कविता एक संस्मरण को समेटे हुई है जो निश्चित रूप से आप सबका मनोरंजन करेगी...कविता का आनंद लीजिए और आशीर्वाद दीजिए..धन्यवाद

अब की होली पे घर जाने का प्लान बनाया,
ये बात पहले समझ में नही आई थी,
इसलिए रिज़र्वेशन भी नही कराई थी,

ऑफीस से छूटते ही घर जाने को बेकरार हो गया,
अनुराग को साथ लिया और तैयार हो गया,
रिज़र्वेशन था नही यात्रा में परेशानी थी,
क्योंकि हम लोगो ने जनरल में जाने की ठानी थी,

स्टेशन पर पहुँचतें ही
अनुराग डरने लगा
,
मेरा भी घर जाने का ख्याल मरने लगा,
फिर भी हमने साहस को जगाया,
और हिम्मत करके प्लेटफार्म नंबर-११ पे आया,

भारी भीड़ थी होली का सीजन था,
कॉलेजों की सामूहिक छुट्टी भी इसका एक रीजन था,
कुंभमेले में बसंत पंचमी का दिन लग रहा था,
और कोलकाता से चिड़ियाघर का सीन लग रहा था,

बच्चे-बड़ों और बूढ़ों के चिल्लाने की आवाज़ आ रही थी,
आदमी की भीड़ आदमी को ही दबा रही थी,

प्लेटफार्म का दृश तो देख कर डरने लगा,
वापस लौट जाने का मन करने लगा,
तभी ट्रेन के सीटी की आवाज़ कान में आई,
तो हमने कदम और तेज बढ़ाई,

मेरे साथ अनुराग ने भी हिम्मत जुटाया था,
अटैची सिर पर बैग बगल में चिपकाया था,
भागते-भागते हम पहुँचे प्लेटफार्म के किनारे,
बिना कुछ किए बस धक्कों के सहारे,

लोग ट्रेन की ओर बढ़ने लगे
सीट पाने के लिए लड़ने-झगड़ने लगे
न जानते हुए भी एक दूसरे से बकवास करने लगे,
हर आज़माईस में ट्रेन में चढ़ने का प्रयास करने लगे,
कुछ चढ़ने और कुछ चढ़ाने में परेशान थे,
उनकी तो हालत ही खराब थी जिनके पास समान थे,

धीरे-धीरे ट्रेन स्टेशन से चलने लगी,
जनरल बोगी कैपेसिटी से आगे बढ़ने लगी,
फिर भी लोग दौड़ कर आने जाने लगे,
बोरिया-बिस्तर लेकर भागमभाग मचाने लगे,

समान वाले चाचा जी समान ही रखते रहे,
सीट मिल ही नही पाई,
वहीं फर्श पे ही बैठ गये लेकर अपनी लुगाई,
भागमभाग में सामान भी छूटने लगे,
सीसे के कुछ आइटम धक्के से टूटने लगे,

पंडित जी की रेडियो, वी. सी. आर. और टी. वी. भी छूट गई,
एक नौजवान की ती बीवी ही छूट गई,

हम और अनुराग धक्के में घुसे पर बैठने नही पाए,
थोड़ी जगह पाकर वही पे पैर फैलाए,
कुछ देर बाद मेरी साँसे उपर नीचे होने लगी,
मेरे पैर पर अटैची रख कर एक दादी जी सोने लगी,

उनको जगाकर अटैची को उपर लटकाया,
तब जाके चैन की सांस ले पाया,

अनुराग भी ग़लती का एहसास कर रहा था मेरे साथ आकर,
इस जनरल बोगी के सफ़र में बैग-अटैची साथ मे लाकर,
गर्मी इतनी की उसका सर चकरा रहा था,
उपर टंगा बैग उसके सर से टकरा रहा था,

अटैची रख कर किसी तरह पैर समेटा था,
और अटैची पर एक छोटा बच्चा लेता था,
बच्चे की मम्मी बाथरूम के गेट पर घोड़े बेच कर सो रही थी,
और बाथरूम आने जाने वालों को जबरदस्त परेशानी हो रही थी,

एक सीट पे आठ-आठ लोग पड़ रहे थे,
उस पर भी कुछ बैठने की जुगाड़ में लड़रहे थे,

एक भाभी जी पर्श छुपा रही थी,चोरी से घबरा कर,
भैया जी तिलमिला उठे पसीने से नहाकर,
पसीने उनका नही उपर बैठे दादा जी से आ रहा था,
बगल में बैठा बच्चा न जाने क्यों शरमा रहा था,
शायद पसीने के साथ कुछ और नीचे आ रहा था,
और बच्चा अपनी इस ग़लती को पसीने से छुपा रहा था,

हमलोग भी पैरो को मोडते-फैलाते सोते जागते रहते,
बाहर के मौसम को टुकूर-टुकूर ताकते रहते,
बाहर का मौसम अंदर से काफ़ी सुखद था,
राहत दे रहा थी, अंदर का हाल मन को सिर्फ़ घबराहट दे रहा .

ट्रेन की जनरल दुर्दशा देख कर सहम गया,
सोचा कभी ऐसे यात्रा नही करूँगा,
जहाँ पर जैसे भी हूँ पड़ा रहूँगा,
पर क्यों ऐसे जाना पसंद करते है,
पसंद करते है या उनकी मजबूरियाँ है,
या उनके अपने लोगों से जो दूरियाँ है,
उसी दूरी को मिटाने के लिए इतना दर्द सहते है,
यह उनके प्यार को दर्शाता है,
की आदमी परेशान तो होता है,
पर जनरल यात्रा करने से नही घबराता है.

Wednesday, September 8, 2010

नवरत्न जनकल्याण सोसाइटी एवं कायाकल्प सांस्कृतिक संस्थान द्वारा नोएडा में आयोजित युवा देशभक्ति कवि सम्मेलन की कुछ झलकियाँ--(विनोद कुमार पांडेय)

नवरत्न जनकल्याण सोसाइटी एवं कायाकल्प सांस्कृतिक संस्थान द्वारा नोएडा में आयोजित युवा देशभक्ति कवि सम्मेलन की कुछ झलकियाँ, कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के तौर पर महान लेखिका श्री सरोजिनी कुलश्रेष्ट जी एवं पूर्व रक्षा सचिव श्री योगेंद्र नारायण जी उपस्थित होकर युवा कवियों को सम्मानित किए. कार्यक्रम का संचालन श्री अशोक श्रीवास्तव जी ने किया.




आदरणीय सरोज़िनी जी एवं योगेंद्र नारायण जी एवं सभी गणमान्य लोग दीप वाणी पूजन करते हुए





कायाकल्प के महासचिव एवं कवि दीपक श्रीवास्तव जी सरोजिनी जी से सम्मान ग्रहण करते हुए





माननीय योगेंद्र जी से सम्मान ग्रहण हुए मैं यानि विनोद





और अंत में मंच पर काव्य पाठ करते हुए मैं




चलिए अब आप सब के समक्ष प्रस्तुत है एक हास्य छ्न्द जो उन दिनो लिखी थी जब माई नेम इज ख़ान रिलीज़ विवाद चल रहा था.


बी. ए. पास बाप हो जो आजकल तब जानो,
हो जाएगी बेटे की पढ़ाई में बेइज़्ज़ती,
मूरख जो चेला हो तो उसको संभालें रखो,
कर देगा किसी दिन बड़ाई में बेइज़्ज़ती,
माई नेम इज ख़ान,रिलीज़ हो गया था देखो,
आन,बान,शान की लड़ाई में बेइज़्ज़ती,
बाल ठाकरे सा शेर मांद में घुसा जो फिर,
बुढऊ की हो गई बुढाई में बेइज़्ज़ती.

Saturday, September 4, 2010

फलक पे झूम रही साँवली घटाएँ हैं--------(विनोद कुमार पांडेय)

आज प्रस्तुत है,आदरणीय पंकज सुबीर जी के ब्लॉग पर वर्षा के तरही मुशायरे में सम्मिलित मेरी एक ग़ज़ल...शुरू के 5 शेर पर पंकज जी का आशीर्वाद मिला है, मैने उसके बाद कुछ शेर और जोड़ दिए और वो सब मेरे शेर जस के तस आप सब के सम्मुख है..शिल्प की कुछ कमी हो सकती है मगर मैं खुद को रोक नही पा रहा हूँ....अब आप सब लोगों के आशीर्वाद की ज़रूरत.....धन्यवाद


फलक पे झूम रहीं साँवली घटाएँ हैं
हवाएं कानों में चुपके से गुनगुनाएँ हैं

फुहार गाने लगी गीत हसीं रिमझिम के
ठुमक-ठुमक के थिरकती हुई हवाएं हैं

उड़ेलने लगे बादल गरज के जलधारा
चमक-चमक के बिजलियाँ हमें डराएँ हैं

पड़े फुहार तो हलचल सी मचे तन-मन में
हज़ारों ख्वाइशें पल भर में मचल जाएँ हैं

उठे लहर जो कभी दिल में हसीं लम्हों का
खुदी से बात करें,खुद से ही शरमाएँ हैं

कोई स्वागत में खड़ा है,उफनते सावन के
कुछ घनघोर बारिशों से तिलमिलाएं हैं

बयाँ न हो रहीं किसान के घर की खुशियाँ
यूँ लगे कई सदी बाद, मुस्कुराएँ हैं

कहीं बूँदे,कहीं बारिश,कहीं है बाढ़
कहीं-कहीं तो मौत बन के बरस आएं हैं

तबाह कर दिए कुछ गाँव-कुछ शहर भी
सहम-सहम के लोग जिंदगी बिताएं हैं

टपकती बूँद छप्परों से भी गवाह बनी
ग़रीब किसी तरह लाज बस बचाएं हैं

Thursday, September 2, 2010

चार दिन की जिंदगी है-----एक हास्य-व्यंग रचना---(विनोद कुमार पांडेय)

इस महीने पूरा प्रयास रहेगा आप लोगों को हँसाने का, उसी सिरीज़ में आज प्रस्तुत है एक हास्य-व्यंग की ग़ज़ल जो शायद युवा लोग को कुछ ज़्यादा ही पसंद आएगी...व्यंग की दृष्टि से पढ़े और आनंद लें....धन्यवाद

चार दिन की जिंदगी है, जिये जा
मौज सारे जिंदगी के, लिये जा

सभ्यता के नाम पर मॉडर्न हो
छोड़ कर ठर्रा विदेशी पिये जा

क्या पता कल हो न हो,ये सोचकर
सब्र को हर रोज फाँसी, दिये जा

बाप ने जितना बचा कर है रखा
छान-घोंट सब बराबर किये जा

हादसों का है शहर तुम क्या करोगे
देख कर बस होंठ अपने सिये जा