Saturday, September 17, 2011

देते है सिरदर्द वहीं जो,बनते झंडू बाम है----(विनोद कुमार पांडेय)

एक छोटे से अंतराल के बाद आज फिर से अपने चिर-परिचित विधा में कुछ लिखने का प्रयास किया हूँ| आज की परिस्थितियों पर एक शुद्ध हास्य-व्यंग्य गीत प्रस्तुत कर रहा हूँ|उम्मीद है आप सभी को पसंद आएगी|धन्यवाद|

दर्शन उतने ही छोटे हैं,जितने उँचे नाम हैं|
देते है सिरदर्द वहीं जो, बनते झंडू बाम है||

गंगाजल सा वो पवित्र है,जिसका कोई चरित्र नही
अधनंगे है चित्र टँगे, फिर भी कुछ कहीं विचित्र नही
है दुर्गंध लोभ-लालच की, अपनेपन की इत्र नही
भले सुदामा मिल जाए पर, कृष्ण के जैसे मित्र नही

लुच्चो की है मौज यहाँ,अच्छों की नींद हराम है|
देते है सिरदर्द वहीं जो बनते झंडू बाम है||

जितने मुँह उतनी बोली है, बिना रंग की रंगोली है
द्विअर्थी संवादों में बस सिमटी,हँसी ठिठोली है
बाँट रहे है ज्ञान मूर्ख, और विद्वानों की झोली है
जनता जिनका तिलक कर रही,वो चोरों की टोली है

उनके उतने ही उँचे कद,जो जितना बदनाम है|
देते है सिरदर्द वहीं जो, बनते झंडू बाम है||

जल्दी में है सारी जमघट,सब कुछ यहाँ फटाफट है
अमन-शांति कहीं-कहीं है,नेकी,दया सफाचट है
वहीं समर्पण है सब जन का,जिधर माल की आहट है
प्यार,मोहब्बत,रिश्ते,नाते सब में यहाँ मिलावट है

बीस ग्राम है शुद्ध-शुद्ध और घपला अस्सी ग्राम है|
देते है सिरदर्द वहीं जो बनते झंडू बाम है||