Friday, December 30, 2016

राम के नहीं हुए ,रामगोपाल के कैसे होते

उत्तर प्रदेश की राजनीति में जिस बात का आकलन कर रहे थे वही सब हुआ । उत्तर प्रदेश की राजनीति में भूचाल आ गया । पिता जी ने बेटे को पार्टी से निकाल कर सिद्ध कर दिया कि अभी वो बूढ़े नहीं है । कितना सोच-विचार किये नेताजी जी ,ये तो पता नहीं पर जनता का मूड कुछ और है ,जो दिखाई दे रहा है । रामगोपाल और अखिलेश समाजवादी पार्टी ही नहीं बल्कि उत्तर प्रदेश की बुद्धजीवी जनता की पसंद थे । टिकट बँटवारे को लेकर शुरू हुई लड़ाई इतना भयंकर रूप ले लेगी किसी ने सोचा नहीं था । शिवपाल और मुलायम जी का अलग कदम क्या होगा ये तो पता नहीं पर जनता अखिलेश को चाहती है क्योंकि इस बार उत्तर प्रदेश में कुछ काम बोला है । यह हताशा भी हो सकती है नेताजी की क्योंकि पार्टी की छवि बदल कर काम वाली हो रही है और जो दबंगई वाली छवि थी वो कम हो रही है । नेताजी को भक्त पसंद हैं पर युवा जो विकास चाहती है अखिलेश को कुछ हद तक पसंद करती है,कुछ लोग आशंका व्यक्त कर रहें हैं कि यह अखिलेश की छवि सुधारने के लिए राजनीति है पर ऐसी राजनीति सकारात्मक नहीं होती ,अखिलेश की छवि तो सुधर जाएगी पर पार्टी बहुत खतरनाक मोड़ पर आ जाएगी । पार्टी के दो फाड़ होने पर फायदा तो विरोधियों को ही होगा । मुलायम जी समझ नहीं रहें है या उन्हें गुमराह किया जा रहा है । 

सारे समाजवादी पार्टी कहते हैं "मन से मुलायम है इरादे से हैं लोहा " अतः फायदा उठाने वाले लोग लोहा गरम देखकर हथौड़ा मार दिए ,अब हालात और गड़बड़ हो गया है । मुलायम की छवि कुछ अलग रही ,विचारधारा भी कुछ कुछ अलग है ऐसे में वो विकास  और साफ़ राजनीति की बात कर रहें अखिलेश  और रामगोपाल को कितना पसंद करते इसलिए आज उन्होंने अपना फैसला सुना दिया । अब देखते जाइये और क्या क्या होता है उत्तर प्रदेश में । 



कहते थे सब लोग नाम से मुलायम हैं 
निकला बड़ा कठोर नाम का नहीं हुआ 

काम बोलने लगा तो अखिलेश को हटाया 
वही जो कभी भी किसी काम का नहीं हुआ 

उसके लिए तो सब आलू और बैगन हैं 
भून दिया था जो शालिग्राम का नहीं हुआ 

रामगोपाल का भला वो कैसे होता बोलो 
आदमी जो भगवान राम का नहीं हुआ 

---विनोद पांडेय 

Thursday, December 29, 2016

बुढ़ाई में ये दिन भी देखना था

मुलायम सिंह जी ने पार्टी को खड़ा करने के लिए क्या-क्या नहीं किया था । शुरुआत में पुलिस की  लाठी-डंडे खाये,सडकों पर पिटे,घसीटे गए,जेल की हवा भी खानी पड़ी ।पहलवान आदमी थे तो झेल गए,ढीले-ढाले होते तो 77 वां बसंत देखने की नौबत नहीं आती । पार्टी को पार्टी बनाने में तन,मन,धन सब झोंक दिया । परिवार को टाइम नहीं दे पा रहे थे तो परिवार को भी पार्टी में शामिल कर लिए ,रिश्तेदारों को टाइम नहीं दे पा रहे थे ,रिश्तेदारों को पार्टी में शामिल कर लिए ।सब मिलकर परिवार की तरह पार्टी को आगे बढ़ाते रहे अब और आगे बढ़ा रहे हैं । यह सौभाग्य की बात है कि पहले सारा निर्णय मुलायम सिंह लेते थे और मान्य होता था पर आज उनके भाई और बेटे भी निर्णय ले सकते हैं ,यह उनके लिए गर्व की बात है । पार्टी उत्तर प्रदेश में विधायकों के टिकट के बँटवारे पर दो फाड़ हो गयी । दो-तीन लिस्ट आ गए । यह पार्टी के बड़प्पन का नतीजा है । पार्टी बड़ी हो चुकी है और पार्टी में बच्चे भी बड़े हो चुके है ,नेताजी को यह सब समझाना चाहिए । दो-तीन लिस्ट नहीं और भी कई लिस्ट आ सकते हैं ,अब उन्हें चुप रह कर ,पानी का धार देखना चाहिए । क्योंकि कोई कमजोर नहीं हैं आखिर है तो यादव परिवार का ही खून । 

मुलायम सिंह जी को एक बार विचार करना चाहिए कि मारामारी बड़े खानदानों में ही होती है और अब परिवार के बच्चे बड़े हो गए हैं अतः बड़े बूढ़ों को चुप रहने में ही भलाई है । वो आज के हिसाब से निर्णय लेंगे तो सही ही लेंगे एजेंडा बदलती रहती है । माना आपको और आपके भाई को दबंग बहुत प्रिय है ,जो जेल में बंद है वो पार्टी के आँख के तारे हैं पर जरुरी नहीं की पार्टी हमेशा दबंगों के सहारे ही जीतेगी । युवा नेता जनता का मन भाँप रहे हैं ,उन्हें भी कुछ समझ में आ रहा होगा अतः उनकी भी मान लीजिये । समय बदलता रहता है ,आज समय बदल गया है । आप जिद पर रहे तो कुछ भी हो सकता है । पार्टी और सत्ता का सुख लेना है तो थोड़ा विवेक लगाइये ,हालाँकि बुढ़ाई में थोड़ा कम काम करता है पर सोचिये तो सही । जनता के मन पर भी विचार कीजियेगा ,परिवार बहुत बड़ा है ,उसका भी संभालना है तो दोनों की सुनकर बीच कर रास्ता निकालिये वरना घर और घाट कुछ भी नहीं मिलेगा । उधर दूसरी पार्टियाँ मजे लेने के मूड में हैं ही ,वो तो बस इंतज़ार है की किसकी लिस्ट मानी जाती है और कौन विद्रोह करता है । समाजवादी पार्टी आज लिस्टवादी पार्टी बन रही है । नेताजी संभालिये इसको या तो बजरंगबली का नाम लेकर सारी चिंता छोड़ दीजिये ।सुझाव मानिये या मत मानिये मेरी बात का बुरा मत मानियेगा । मैंने तो बस ऐसे ही कह दिया । 

--विनोद पांडेय 

Wednesday, December 28, 2016

आ गया सावन सजन कब आओगे

नवम्बर माह के प्रयास में मेरे गीत को प्रशंसनीय रचना के शामिल किया गया ,मेरे लिए हर्ष का विषय है । सरला नारायण ट्रस्ट एवं गीतऋषि डॉ विष्णु सक्सेना जी का बहुत बहुत आभार |


Friday, December 23, 2016

तैमूर, नाम में क्या रखा है

शेक्सपीयर जी बहुत सही कह के गए थे कि नाम में क्या रखा है ।भले वो अपने नाम से खीझ कर ये बात बोले हों पर वास्तव में यही बात सही है कि नाम खाली गप्प है इसमें कुछ नहीं रखा है ।हमारा तो मानना है कि नाम रखना ही नही चाहिए । पर ये बात समझे कौन ।आजकल विद्वानों की कोई सुनता ही नहीं । बस एक पत्नियाँ हैं जो इसका पालन करती हैं और एजी,ओजी कह कर बड़े शानदार ढंग काम निकाल लेती हैं ।कुछ समझदार पत्नियाँ तो एजी,ओजी का भी प्रयोग नहीं करती है,उनका बस एक इशारा ही काफी है,पतिदेव मुश्किल से मुश्किल काम पलक झपकते ही कर डालते हैं ।इसलिए नाम नहीं काम महत्वपूर्ण है ,अब हम अपने नाम से ही शुरुआत करते हैं तो हमको याद नहीं पर लोग बताते हैं कि जब हम पैदा हुए तो हमारे दादा जी विनोद खन्ना के किसी फिल्म का मैटिनी शो निपटा कर आये थे । पिक्चर बहुत शानदार थी और विनोद खन्ना का एक्टिंग और धांसू था । बस फिर क्या हमारा नामकरण हो गया । लेकिन साहब हमारे अंदर आजतक विनोद खन्ना का कोई गुण नहीं आ पाया ,लंबाई-चौड़ाई हर तरह से फेल रहा । फिर भी लोग कहते हैं नाम गलत है ,नाम सही है तो दिमाग ख़राब हो जाता है ।
नाम की बात करें तो हमारे मोहल्ले में आधे लोगों का नाम भगवान जी के नाम से शुरू है लेकिन उनकी दशा बस भगवान भरोसे है ।एक रामलाल थे,जो पिता जी सर फोड़ कर बचपन में ही वनवास पर निकल गए,आज चौदह साल से ज्यादा हो गया,उनके दर्शन नहीं हुए ।रोशन अली स्कूटर चुराते हुए धरे गए ,आजकल जेल में रह कर परिवार का नाम रोशन कर रहें हैं ।कन्हैया कुमार का बचपन कंचा खेलने में बीत गया ,जवानी जुआ खेलने में ,इधर बुढ़ाई में कन्हैया बनने चले थे तो बेचारे लड़कों को जमानत करवाना पड़ा । उधर जिसका नाम फ़कीरचंद था उसकी बाइस ट्रकें चल रही है और वो धनवानों के कान काट रहें है ।इसलिए इस बात पर बहुत विवाद नहीं होनी चाहिए ।नाम तैमूर हो या लंगूर ,कोई फर्क नहीं पड़ता ।वैसे भी यह मामला सैफ और करीना का व्यक्तिगत मामला है ,उनका लड़का है ,कोई सार्वजानिक संपत्ति नहीं है कि उसके नाम लिए अध्यादेश पारित होगा । पंगा करने वाले भला समझते क्यों नहीं कि तैमूर उनके माँ-बाप का सपना है । उसके लिए सैफ और करीना को कितना पापड़ बेलना पड़ा,जग जाहिर है ।उसके पापा ने पहली पत्नी को तलाक दिया ,मम्मी ने परिवार का विरोध कर,धर्म परिवर्तन कर ,अपने से बीस साल उम्र के आदमी से शादी रचाई ।तब कहीं तैमूर दुनिया में आया ।माँ-बाप की यह कुर्बानी लोग भूल जाते हैं ,और आज ख़ुशी मनाने के बजाय विरोध कर रहें हैं ।
बवाल खड़े करने लोगों की मनोभावना हमारे दिमाग में भी आ रही है ।पर ऐसा नहीं होता । वो सोच रहे हैं कि लुटेरे तैमूर के नाम पर नाम रखने से ये लड़का भी वैसे ही न हो जाये । अरे भाई ,ऐसा थोड़े ही होता है ,वो तो मैंने पहले ही बता रखा है ।इस लड़के का पारिवारिक बैकग्राउंड ऐसा है कि यह बस एक ठीक-ठाक हीरो बन जाये ,इतना ही बहुत है । पिता जी तो उसमें भी कुछ खास नहीं कर पाए ,मम्मी का काम-धाम कुछ ठीक ठाक रहा ।यह पटौदी खानदान कर वारिस बनेगा ,कोई लंगड़ा तैमूर नहीं,इसलिए देशवासियों को चिंता करने की जरुरत नहीं है।सब लोग देखते रहना चार-पाँच साल में तैमूर नाचना-गाना शुरू कर देगा ,आगे का भविष्य अल्लाह निर्धारित करेंगे और दुनिया देखेगी ।फिल्म इंडस्ट्री का तैमूर कोई क्रूर शाषक-वासक नहीं बनेगा बल्कि हीरो बनकर शाहिद कपूर की लड़की के साथ पिक्चर बनाएगा ।इससे ज्यादा यह कुछ कर नहीं सकता ,इसलिए नाम का टेंशन लेने वाले लोगों से सविनय निवेदन है धैर्य बनाये रखें । यह नाम रखने के लिए मैं सैफ और करीना को सल्यूट करता हूँ और निवेदन करूँगा अगला लड़का हो तो उसका नाम औरंगजेब रखें,हम सभी को भविष्य में तैमूर और औरंगजेब को नायिकाओं के साथ पर्दे पर ठुमके लगाते देखकर बहुत अच्छा लगेगा और अगर निगेटिव रोल में आये तो बहुत से लोग इन्हें पिटते हुए देखकर बहुत प्रसन्न होंगे ।सब अपने अपने नजरिये से देखेंगे और आनंद लेंगे इसलिए अभी नाम की चिंता छोड़िये और बच्चे को भविष्य के लिए शुभकामनायें दीजिये ।देखेंगे आगे क्या होता है ।
--विनोद पांडेय

Wednesday, December 21, 2016

दो हजार के समोसे

प्रभु जी का नाम जपते हुए दिल्ली से बनारस के लिए रवाना हुआ । वैसे तो हम हर यात्रा से पहले प्रभु जी का ही नाम लेते हैं पर रेलगाड़ी से यात्रा करते हुए उनका नाम जपना नितांत आवश्यक हो जाता है क्योंकि जब तक आप रेलगाड़ी में होते हैं तब तक आप प्रभु जी के हवाले होते हैं।यकीन मानिये अगर आप सकुशल गंतव्य स्टेशन पर बोरिया-बिस्तर लेकर उतर जाते हैं तो यह उनकी ही कृपा है ।
यह प्रभु जी की ही कृपा थी कि हम स्टेशन पर आये और सामने हमारी ट्रेन भी खड़ी मिली ,कृपा इसलिए कहा कि अब तक ऐसे कई अनुभवों में इंतज़ार का बड़ा महत्वपूर्ण योगदान रहा ।खैर स्टेशन पर गाड़ी देखकर पसीने अपने आप सूख गए,मैं प्रसन्न भी था और आश्चर्यचकित भी ,आश्चर्य की मात्रा प्रसन्नता से चार गुना अधिक थी । हम मंगलयात्रा की कामना करने वाली देवी की मधुर आवाज को कान से सुनकर ह्रदय में सहेजते हुए बोगी में दाखिल हुए । धर्मपत्नी जी की मेहरबानी थी ,दोनों हाथों में अटैची को थामे हुए हम पति कम,कुली ज्यादा नजर आ रहे थे ,ऊपर से ठण्ड में पसीना ऐसे निकल रहा था जैसे अभी-अभी गंगास्नान करके निकले हैं ।पसीना इसलिए भी निकल रहा था कि ,उसको भी बहुत दिन बाद आज मौका मिला था ,घर से लेकर ऑफिस तक एसी । पसीना का भी दम घुट रहा था । आज मौका मिला निकलने का तो क्यों शर्म करें ।
परिवार को जैसे ही ट्रेन में दाखिल किया कि भीड़ टूट पड़ी,उस पल ऐसा लगा जैसा लोग मेरे ही चढ़ने का इंतज़ार कर रहे थे । हम दिमाग के मामले में कमजोर नहीं थे ,ऊपर से ट्रेन में यात्रा भी खूब किये थी । वही सब अनुभव काम आ गया । अंदर जाने के लिए ज्यादा जोर नहीं लगाना पड़ा ,केवल एक भारी भरकम आदमी को तलाश कर उसके सामने आना पड़ा और बैलैंस बनाकर लक्ष्य की ओर गतिमान होना पड़ता है ,इस छोटे से अभ्यास से मैं ट्रेन के अंदर ही नहीं बल्कि अपने सीट तक पहुँच गया ।भीड़ से एक तरफ खड़ी हुई बीवी की नजरें मुझे तलाश ही रही थी कि मैं हिलते-डुलते प्रकट हो गया ।
भारतीय रेलयात्री का यह महत्वपूर्ण अधिकार है कि यदि उसका बर्थ लोअर है तो वो पहले आकर अपना सारा सामान बर्थ के नीचे ठूस सकता हैं और बाद में आने वाले यात्री को इधर-उधर सामान रखने की सलाह दे सकता है ।आज हमारे सीट पर बैठे एक महाशय जी ने इस महत्वपूर्ण अधिकार का प्रयोग मेरे आने से पूर्व कर लिए ,अतः मुझे देखकर उनका मुस्कुराना जरुरी कार्यवाही में शामिल था। मेरा अपर बर्थ था और मेरे पास दो अटैची थी और लोअर बर्थ के नीचे जितनी जगह थी उसमें तो ठीक से चप्पल भी नहीं आ सकती थी ।मैं उन इंसानों में शामिल था जो चप्पल को सिर के पास रखकर सोना पसंद नहीं करते हैं अतः मुझे तो चप्पल रखने के लिए भी जगह चाहिए थी ।
मैंने महोदय जी को इशारा किया कि वो अपना कुछ सामान निकाल लें परंतु मेरे इस इशारे को नजरअंदाज कर उन्हें दाँत दिखाना ज्यादा पसंद था । फिर भी अगले ने अपने सामने वाली मैडम जी से बात कर मेरी एक अटैची को ठिकाने लगवा दिया और दूसरी अटैची दोनों सीटों के खाली मैदान में रखवा कर बड़े कॉन्फिडेंस से बोले की ट्रेन चलने दीजिये सब सही हो जायेगा ।वैसे तो शक्ल-सूरत से वो कैरेबियाई दीप के प्राणी मालूम पड़ते थे पर मुँह खोलते ही यह समझने में समय न लगा कि महोदय यूपी निवासी हैं । इस नाते भी मैंने उनके आश्वासन पर भरोसा कर लिया और धन्यवाद कह कर उनके ही बगल में बैठ गया ।धर्मपत्नी जी सामने मैडम जी के बगल में आराम से बैठ गयीं ।
ट्रेन सामान्य लोगों के लिए बतियाने का बड़ा उत्तम स्थान माना जाता है इसलिए कि सामान्य लोग खाली होते हैं ।असामान्य लोगों के पास आधुनिक मनोरंजन के कुछ अन्य साधन भी होते हैं जिसमें इंसानों की जरुरत नहीं होती है । हम सामान्य लोगों के बीच में बैठे थे अतः बातचीत होनी ही थी बस शुरुआत कौन करे ,इस बात का लगभग इंतज़ार सब कर रहे थे ।इन महत्वपूर्ण स्थानों पर कभी-कभी बड़े ही अजीबोगरीब प्रश्नों से बातचीत की शुरुआत होती है,जो यहाँ भी हुआ । हमारे बगल में बैठे महोदय जी ने प्रश्न किया ,ट्रेन कितने बड़े चलेगी । मन तो आया की बोल दूँ टिकट पर लिखा है पर विचार आया कि अभी एक अटैची सेट नहीं हो पायी है ।उनके प्रश्न में किसी ने रूचि नहीं दिखाई ,बजाय बगल से गुजरते हुए एक चाय वाले ने ,उसने कहा कि बस चलने वाली है । भाई साहब तो प्रश्न ट्रेन का टाइम जानने के लिए तो किये ही नहीं थे अतः थोड़े निराश हुए मगर नहीं हारे थे। अबकी बार उन्होंने सीधा-सीधा मुझसे सवाल दागा कि कहाँ जा रहे हो भाई साहब । मैंने सिर्फ बनारस बोलकर बात ख़त्मकरने की कोशिश की ,लेकिन यह क्या वो शुरू हो गए, लगे बनारस की खूबियाँ बताने,उनका मुख्य उद्देश्य अपनी बातचीत शुरू करने का था, साथ ही साथ बनारस के सामान्य ज्ञान पर अपनी पकड़ भी दिखाना चाहते थे । ऐसे लोग लगभग हर जगह मिल जाते हैं । ज्ञान देना हम भारतियों का प्रमुख गुण हैं जिसके लिए हम किसी से एक पैसे नहीं लेते बस सामने वाले को थोड़ा धैर्य रखना होता है और मुँह बंद करके रखनी होती है । क्योंकि मुँह खोलने पर आप ज्ञान देने वाले के ज्ञान को चुनौती देते हो जो एक ज्ञानी व्यक्ति स्वीकार नहीं करता है । पहले के और आज के ज्ञानी पुरुषों में यहीं अंतर है पहले लोग शास्त्रार्थ करना पसंद करते थे अब लोग इसे समय की बर्बादी मानते हैं वैसे भी आजकल के लोगों के पास समय की भरपूर कमी रहती है ।
ट्रेन में बातचीत का सिलसिला चलता रहा और लगभग सभी लोग जिन्होंने उन महोदय की बातें सुनी स्वीकार किया कि वो महोदय बहुत बड़े विद्वान हैं । जिन्होंने नहीं सुनी उनको भी लग रहा था कि आदमी में कुछ दम तो है । मुझे उनकी बातों से ज्यादा रूचि मुझे अपनी अटैची रखवाने में थी । बातचीत के दौरान और लोग भी थोड़े सहज हो गए तो मुझे स्वयं पहल करके अपनी अटैची ठिकाने लगनी पड़ी । जो महोदय पहले आश्वासन दिए थे वो तो अब अटैची क्या मुझे भी भूल चुके हैं । अब उनके लिए मैं एक श्रोता था जो उनके सामान्य ज्ञान पर आश्चर्य हो कर आँखें बड़ी-बड़ी कर लेता था और वो मेरे इस क्रिया को इस बात का उत्तर समझते थे कि मैं मान रहा हूँ कि वो ज्ञान के सागर हैं ।
ट्रेन ने धीरे-धीरे गति पकड़ी ,सब अपने अपने स्टेटस के अनुसार खाने पीने की तैयारी में लग गए । हमने भी मिडिल क्लास के हिसाब से कुछ खाया-पीया । सब धीरे-धीरे सोने के लिए अपना सीट लगाने लगे थे कि इसी बीच सूप वाले की एंट्री होती है। सूप अब धीरे-धीरे मिडिल क्लास में आ रहा है अतः हमारे बोगी के ज्यादातर लोगों ने इस पेय पदार्थ का सेवन का लुत्फ़ उठाया । हमारे बगल में बैठे विद्वान भाई साहब (बातचीत में पता चला बाबू साहब हैं ) जी ने भी सूप ख़रीदा साथ-साथ सूप की फायदों के बारे में चर्चा भी कर रहे थे ।अभी सिर्फ दो सिप ही लिए थे कि बात फंस गयी ,सूप वाले के पास दो हजार का चेंज नहीं था और इनके पास था लेकिन देना नहीं चाहते थे,मुझे इसपर आश्चर्य नहीं हुआ क्योंकि आजकल बहुत से लोगों के स्वभाव में ऐसी हरकत शुमार हो गयी है ।बहरहाल अब क्या हो । बाद में पैसे लेने के लिए न तो वो राजी थे और न तो सूप वाला ।सूप वाले भाई साहब ने सारे नोट गिना दिए तो कुल मिलाकर बारह सौ हुए और इनके पास तो दस रूपये भी नहीं थे ,हालाँकि ये पर्स दिखाने को तैयार नहीं थे । कुल मिलाकर मुझे तो ऐसा प्रतीत हो रहा था कि आज ये मुफ्त का सूप पीने के मूड में हैं और सूप वाले बेचारे से तफ़री ले रहें हैं । दस मिनट में इधर उधर पूछने के बाद जब उसने कहा कि ठीक है साहब पैसे बाद में ले जाऊंगा तो साहब के चेहरे पर ओलम्पिक में गोल्ड मेडल जितने जैसी प्रसन्नता परिलक्षित हुई ।मेरी पत्नी को बहुत दुःख हुआ जब थोड़ी देर में ही उन्होंने खाना लाने वाले को साठ रुपये में दस-दस के छः नोट दिए ।यह सब करते हुए कई लोगों ने उनको देखा पर दूसरे के अर्थव्यवस्था कैसी चलती है, इस पर सबकी अलग-अलग राय है । हालाँकि सूप वाले के साथ सहानुभूति सभी की थी क्योंकि यह हमारे देश की विशेषता है ,बुराइयाँ देख लेते हैं और झेल भी लेते हैं ।

खाना खाने के बाद भी बाबू साहब बिस्तर पर जाने के लिए तैयार नहीं हुए तो हमें लोकतान्त्रिक व्यवस्था का सहारा लेना पड़ा क्योंकि नींद सभी को आ रही थी । सभी अपने अपने हिसाब से लेट गए । उन्हें भी लेटना पड़ा,कचौड़ियाँ पेट में करतब दिखा रही थी सो नींद आना तो संभव था नहीं बस मज़बूरी में लेटे हुए थे । उनका सारा बोरिया बिस्तर तो बर्थ के नीचे पड़ा था पर न जाने क्यों एक बैग अपने पास रखकर लेटे थे । मेरे सामान्य ज्ञान के अनुसार उनकी इस यात्रा में बैग की भूमिका महत्वपूर्ण थी ।बाबू साहब उठते-बैठते रहते थे ।खासकर उठते थे जब महिला की आवाज सुनायी देती थी और लेट तब जाते थे जब सूप वाला आसपास से गुजरता था ,उनको डर था कि वो पैसे न माँग ले ,उधर वो बेचारा इस बात भूल चूका था ।मेरी नींद आ-जा रही थी ,कहते हैं आप जब महान लोगों के बीच होते हो तो आपकी आँखें खुल जाती है ,मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हो रहा था ।
कुछ देर ऐसे ही चलता रहा फिर कानपुर रेलवे स्टेशन आया । कचौड़ियाँ पच गयी थी सो बाबू साहब उठे,आस-पास की सीट पर ताक-झाँक करते हुए ,स्टेशन पर उतर गए ।यात्रा का पूरा आनंद यहीं ले रहे थे । तभी इन्हें कहीं समोसे दिखाई दिए ,बस लार टपकाते हुए पहुँच गए ,पाँच मिनट बारगेनिंग चली ।फिर दस रुपये के चार समोसे प्राप्त हुए । मगर फिर क्या वहाँ भी दो हजार का नोट । समोसे वाला पहले तो झल्लाया फिर कानपुरी अंदाज में बोला ,लाओ साहब देखते हैं । इन्हें ठेले के पास खड़ा कर इधर उधर घूमने लगा ।इनके जेब में दस रूपये थे पर जब तक ये अपना निर्णय बदलते,समोसे वाला ऐसे गायब हुआ जैसे गायब होने में डिप्लोमा होल्डर हो ।बाबू साहब को समोसा अब जहर जैसा लगने लगा ,पाँच मिनट और इंतज़ार किये । पर शायद दुकानदार छुट्टे लाने अपने घर चला गया था ।रेलगाड़ी को ये बात नहीं मालूम थी सो ठीक दस मिनट बाद सीटी बज गयी ,अब बाबू साहब को काटो तो खून नहीं ,खीझते हुए पाँच समोसे और उठा लिए ,पजामा संभालते हुए आगे-पीछे देखते हुए ट्रेन में चढ़ गए ।उनकी सारी चालाकी धरी रह गयी । जब डेढ़ बजे रात को लाइट जला कर उन्हें समोसे खाते देखा तब मुझे इस घटना का पता चला,मैंने भी उदास होने का मन बनाया यद्यपि हो नहीं पाया तो बस लाइट बुझाया और सो गया लेकिन बाबू साहब जागते रहे ,किसी उधेड़बुन में ,कुछ बड़बड़ाते रहे । सुबह उनके सो कर उठने से पहले यह बात पूरी बोगी में आग की तरह फ़ैल चुकी थी,लगभग सभी ने कम से कम एक बार इनके दर्शन कर यात्रा का पुण्य कमाया ।हमने तो ट्रेन से उतरते समय उनका एक फोटो भी ले लिया दिमाग कह रहा था कि ऐसे लोगों की याद बनी रहनी चाहिए ।
----विनोद पांडेय

Wednesday, December 7, 2016

कुछ आधुनिक साहित्यकार----(विनोद कुमार पांडेय )

कल दोपहर मेट्रो की सीढ़ियों पर दौड़ते हुए एक मूर्धन्य साहित्यकार पर मेरी नजर पड़ी । वो भागते हुए भी साहित्यकार ही लग रहे थे | उनके हाथ में उन्हीं का लिखा हुआ एक महाकाव्य था जो शायद आज के बाद किसी और के आलमारी की शोभा बढ़ाने वाला है । महाकाव्य इसलिए कहा कि उसमें लिखी कविताएँ असाधारण थी । उनकी कविताओं में काव्य के सारे तत्व मौजूद थे, बस दिखायी नहीं देते थे ।उनसे मिलने वाला या यूँ कहें उनको दिख जाने वाला कोई भी व्यक्ति बिना उस महाकाव्य को लिए घर नहीं जा सकता ।मेरे पर उनका विशेष प्रेम था,अब तक उस महाकाव्य की तीन प्रतियाँ घर ला चुका हूँ ।हर बार सप्रेम भेट कर देते और मैं उनके सप्रेम भेट को मुस्कुराते हुए स्वीकार कर लेता क्योंकि मैंने सुन रखा था कि शीश तोड़ों ,पत्थर तोड़ों पर किसी का दिल मत तोड़ों ।
खैर ,मेट्रों स्टेशन पर उनको दूर से देखते हुए मैं उनसे और दूरियां बनाते हुए मेट्रों की प्रतीक्षा में खड़ा हुआ । मेट्रों से ज्यादा मेरा ध्यान इस बात पर था कि महोदय जी मुझको देख न लें ।मेट्रों आयी ।चूँकि मैं भीड़ के बीचोबीच खड़ा था अतः बिना किसी प्रयास के भीड़ द्वारा अंदर ठूस दिया गया ।मुझे केवल हाथ-पैर बचाने की मेहनत करनी पड़ी और मैं मेट्रों में अंदर आ गया ।मगर यह क्या ,काटो तो खून नहीं,वो इसलिए की सामने नजर पड़ी तो वृद्ध एवं विकलांग सीट पर साहित्यकार महोदय चश्मा साफ करते दिखाई पड़े ,मुझे देखते ही वो चीख पड़े इससे यह भी साफ़ हो गया था कि चश्मा लगाना उनके पर्सनालिटी का एक हिस्सा है ।
मैंने उन्हें चुप कराते हुए उनके नजदीक पहुँचा तो वो भी मुझे एडजस्ट करने के लिए मेहनत करने लगे,थोड़ा जगह बना कर मुझे जबरदस्ती बिठाने की उनकी कोशिश तब बेकार चली गयी जब बगल में बैठी एक मैडम जी झटपट अपने शौहर का हाथ पकड़ खींच कर बिठा लिया ।फिर क्या करते साहित्यकार महोदय जी भी कुछ लाज-शर्म की बात करके चुप हो गए ।मैं उनकी बातों में रूचि न लेने का बहाना कर रहा था पर वो बातचीत के जुगाड़ में थे ।मुझे भी पता था कि वो ज्यादा देर रुक नहीं सकते थे ,क्योंकि दो साहित्यकार एक जगह हो और दोनों मौन रहें ऐसा संभव ही नहीं ।थोड़ी देर इधर उधर देखते रहे फिर बोल ही पड़े ,कि भाई साहब ,मेरी किताब आप को कैसी लगी । अब मैं क्या बोलूँ क्योंकि मैंने तो आजतक उनकी महाकाव्य के एक पन्ना नहीं पलटा । "बहुत शानदार लगी "इसका विशेषण ढूढ़ ही रहा था कि वहीं झट से बोल पड़े,अच्छी ही लगी होगी ,आजतक जिसने भी पढ़ा सभी ने तारीफ ही की है । मैंने मुँह खोल कि वो फिर बोल पड़े कि जुलाई में दूसरी किताब भी आ जाएगी ,विमोचन में आप को रहना है । विमोचन से मुझे याद आया कि इनके पहले विमोचन में मैं गया था ,मुश्किल से दस लोग आये थे ,फोटों खींचते वक्त तो जलपान वाले लड़कों को भी किताब पकड़ाकर खड़ा कर दिए थे । पाँच मिनट में विमोचन हो गया था पर बन्दे ने डेढ़ घंटे तक सबको कविताएँ सुनाई,जलपान के नाम पर चाय पकौड़े तो आये थे पर इनकी कविता सुनकर सब पेट में जाने से मुकर गए और मुँह तक आकर बाहर आने की जिद करने लगे मैंने तो उनकी जिद तुरंत पूरी कर दी थी ,बाकि लोगों ने शायद बाद में की होगी ।
ऐसी सुखद पल मुझे पचते नहीं हैं अतः मैंने निर्णय लिया कि दोबारा ऐसे कार्यक्रमों में नहीं जाऊँगा और ये भाई साहब दोबारा निमंत्रण दे रहे हैं । खैर मैंने "देखा जायेगा" कह कर बात को टाल दिया । इससे पहले कि वो फिर मुँह खोलते मैंने ही पूछ लिया ,कहाँ जा रहे हो आप ? । "एक साहित्यिक कार्यक्रम में " वो मुस्कुराते हुए बोले।मुझे बिलकुल आश्चर्य नहीं हुआ क्योंकि मुझे ही नहीं बल्कि शहर के एक चौथाई साहित्यकारों पता है कि ये नित्य ही किसी न किसी साहित्यिक कार्यक्रम में ही जाते हैं ।मैंने बात को आगे बढ़ाया और पूछा की कैसा कार्यक्रम है । उन्होंने शहर के एक बड़े साहित्यकार का नाम लेते हुए बताया कि उन्होंने एक विचार गोष्ठी रखी है जिसमें शहर ही नहीं बल्कि देश के बड़े बड़े साहित्यकार व्याख्यान देंगे ।मैंने मजाकिया अंदाज में पूछा कि आप भी व्याख्यान देंगे क्या ,जो तीस रुपये खर्च करके ,पाँच घंटे का सत्यानाश करके इतना बड़े कार्यक्रम में जा रहे हैं ।महोदय जी ने मुँह लटकाते हुए कहा ,"अरे नहीं हम कहाँ " ,हम तो बस व्याख्यान सुनने जा रहें हैं और कुछ लोगों से मुलाकात होगी तो अच्छा लगेगा । मैं साहित्यकार की इस संतुष्टि पर अवाक् रह गया । ऐसा महान साहित्यकार जो केवल व्याख्यान सुनकर संतोष कर लेगा किसी बड़े आश्चर्य से कम नहीं था । मैंने मन ही मन सोचा ये इनका महाकाव्य किसी व्याख्यान का ही नतीजा है,भगवान जाने अब भविष्य में ये और क्या गुल खिलाएंगे ।
मैं भी टाइम पास कर रहा था इसलिए बात आगे बढ़ाया कि आप को अच्छा लगेगा कि महान साहित्यकारों के बीच आप कुछ अपनी न ठेल पाएं तो । उन्होंने बोला भाई यह तो मौके की बात है,अगर जरा मौका मिल गया तो चुप थोड़े ही रहूँगा,कुछ नहीं तो माइक के सामने जाकर एक फोटो तो खिंचवा ही लूँगा ,इसके लिए कौन रोकेगा । इन महोदय की असली बात मेरी समझ अब आयी ,उन्होंने फिर बोले कि भाई इससे पहले भी कई कार्यक्रमों में गया हूँ ,कहीं मौका नहीं मिलता ,मौका छिनना पड़ता है। हम ऐसे ही इतने महान थोड़े ही हुए हैं । फेसबुक पर रोज फोटो अपडेट करता हूँ तो पोज देखकर लोग दाँतों तले उँगली दबा लेते हैं ।हिंदी के साहित्यकार फर्राटा अंग्रेजी बोलने लगे कि माई अचीवमेंट इज माई फेसबुक प्रोफाइल पेज,गो एन्ड सी । लोग मुझे कमेंट करते है,लाइक करते हैं,कहते हैं कि बड़े साहित्यकार हो गए हो | बस और क्या चाहिए । किसको पता कि कार्यक्रमों में क्या होता है ।बस फोटो अच्छी आनी चाहिए ,वो भी बड़े बड़े साहित्यकारों के साथ । फिर तुम भी बड़े हो जाओगे,हम ऐसे बड़े थोड़े ही हुए हैं । उनकी बात ख़त्म हुई और मेरा स्टेशन आ गए । मैं भी नमस्कार करते हुए मेट्रों से उतर गया यह सोचते हुए कि धन्य हैं ऐसे महान साहित्यकार जिनकी उपलब्धि बस माइक पकड़े हुए या बड़े साहित्यकारों के साथ खिंचवाया गया, फोटो हैं | बेचारे फोटो खिंचवाने के लिए कितना पापड़ बेलते हैं |

---विनोद पांडेय